इस कविता की भूमिका यह है कि अभी कुछ दिनों पूर्व, मैं भीषण बीमार था (कोविड नहीं)। उस अवस्था में मुझे जीने की
प्रेरणा चाहिए थी, और मैंने उसी
अवस्था में अपने लिए यह कविता लिखी।
आप सबके समक्ष प्रस्तुत है-
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समर शेष है
चलो समरपति
ले भुजबल आगे-आगे
शत्रु शेष है
लिए अक्षौहणी
खलबल आगे-आगे
उठो कि भेरी बज उठी है
तुम सस्वर प्रस्थान करो
मन-ध्वन्या की बाँध प्रत्यंचा
निजबल-शर संधान करो
अरि शेष है,
चलो थलपति ले जनबल आगे-आगे
समर शेष है
चलो समरपति
ले भुजबल आगे-आगे
उसके तीक्ष्ण वार के बदले
वार तुम्हें करना है
उसके प्रति प्रहार से पहले
मार तुम्हें करना है
अस्त्र शेष है
चलो दलपति
ले दलबल आगे-आगे
समर शेष है
चलो समरपति
ले भुजबल आगे-आगे
बनें रहना हो रण में तो
दलित नहीं होना है
मस्तक धरती पर गिरने तक
खलित नहीं होना है
मृत्यु शेष है
चलो रणपति
ले सम्बल आगे-आगे
समर शेष है
चलो समरपति
ले भुजबल आगे-आगे
ये लो अन्तिम शत्रु का
मस्तक अब हाथ तुम्हारे है
ये लो अन्तिम शत्रु का
क्षत्रप अब हाथ तुम्हारे है
जीवन शेष है
बढ़ो अधिपति
ले करतल आगे-आगे
समर शेष है
चलो समरपति
ले भुजबल आगे-आगे
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