शब्द समर

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1.12.10

कीचड में कमल

मैनें देखा एक तालाब,
उसमें खिले थे कई कमल.
बेहिचक कर गया प्रवेश मैं उस सरोवर में,
तोड़ने एक फूल.
लेकिन ये क्या?
इसमें तो कीचड़ ही कीचड़ है.
मन ने मुझे समझाया,
बेटा!
कमल कीचड़ में ही खिलते हैं.
थोड़ा आत्मविश्वास जगा,
सोचा एक डुबकी लगा लूँ
फिर बढ़ाऊं कदम अष्टदल की ओर.
लेकिन जैसे ही डुबकी लगाया
तो समझ में आया
यहाँ एक नहीं लगभग कई मछलियाँ मरकर सड़ चुकी हैं
जिनसे फैली है सड़ांध पूरे सरोवर में.
ओ हो! मेरा तो नाक की फटा जा रहा है इस दुर्गन्ध से.
कीच का कमल तो सुंगंधित होता है
किन्तु क्या सड़ी हुई मछलियों के बीच का भी
कमल होगा सुंगंधित ?
कभी नहीं.
तो?
अब
करूँगा पानी में रहके मगर से वैर,
फेकुंगा बहार सारी सड़ी मछलियों को,
करूँगा परिमार्जित इस सर जल को.
तब पुनः अरविन्द बिखेरेगा अपना सौरभ
और करेगा आकर्षित जन-जन को अपनी ओर
तब केवल मेरे ही नहीं
कईयों के कदम बढ़ेंगे कमल की तरफ
जो खिलता है कीचड़ में
किन्तु महकता है,
अनंत गगन में.

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