शब्द समर

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18.12.10

मै नितांत अकेला

बचा हूँ
मै नितांत अकेला,
क्योंकि मैनें लड़ी थी
लड़ाई बर्चस्व की.
मैं,
पीछे नहीं हटा
रचने में षड़यंत्र उनके विरुद्ध
जो रहते थे शेष नाग की तरह
छत्र किये हुए
मेरे सर पर.
मैं पीछे नहीं हटा
प्रयोग करने में चारों नीतियां
(साम, दाम, दंड, भेद)
जो वास्तव में होती हैं शत्रु के लिए.
मैनें अपनाई आंग्लनीति
तोड़ने को उनका घर
जो थे मेरे मध्य रात्रि के भी
दुखानुगामी
मैं करना चाहा विनाश
अपने ही परिजनों का
क्योंकि मैं चाहता था
स्थापित करना स्वयं को सबके बीच.
मैनें चलाए तलवार से भी घातक
शब्दबाण,
कर दिया उनका सर
धड से अलग
और तड़पने को छोड़ दिया उन्हें
सूखे बरगद की तरह.
उनके सहचरों को बनाया अपना मित्र,
उनका शत्रु,
तोड़ दिया उनकी ही कमर
जिनके रीढ़ के सहारे
मै खुद खड़ा था.
मेरे इस चाल को समझ गये मेरे
कृत्रिम हितैषी.
वे समझ गये,
कल हमसे भी करेगा यही-
छल, कपट, धोखा, फरेब, जालसाजी,
धकेल देगा हमें भी
विषैले कुएं में
मीठे पानी का लालच देकर.
वे समझ गये,
सहज प्रवृत्ति मानव की
जो करता है किसी एक से
कुटिलता निज स्वार्थ हेतु
वह नहीं छोड़ता किसी को भी
अपने चक्रव्युहू से.
सब कर गये मुझसे किनारा
मैं
अब बचा हूँ बे सहारा.
मेरे हाथ-पांव अब ढीले हो गये हैं,
मेरी विषैली वाणी
अब घी उडेलना चाहती है,
किन्तु नहीं है कोई सुनने वाला.
मेरी दसों उंगलियाँ एकत्र होकर
गिडगिडाना चाहती हैं,
पर कोई अब मुझे दुत्कारता भी नहीं
लोग अब मुझे अब ताकते तक नहीं
जबकि मैं पुनः बैठना चाहता हूँ
उन्ही के बीच
जिन्हें मैंने बना लिया था अपना अनुगामी
कुटिलता से.
लेकिन मैं समझ गया
नहीं देखेंगे वे मेरी तरफ
क्योंकि
मैं
हूँ
स्वार्थी, कपटी, छली, विश्वासघाती,
आस्तीन का सांप, पाखंडी, घमंडी,
अनंत दुर्गुणों का आलय.
और न जानें क्या-क्या........
मुझे
नहीं था पता,
मेरे दुष्कर्मों की सजा
मेरे देखते यहीं मिल जाएगी.
अब मैं क्या करूँ
मैं
हो गया हूँ
असहाय,
नितांत अकेला.

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