शब्द समर

विशेषाधिकार

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23.9.20

अज्ञात

वह वक्ता ऐसा
कि बोलने लगे तो पहाड़ रणभूमि में
युद्ध करने दौड़ पड़ें।
बाँध से छोड़े गए पानी की तरह
उमड़ पड़े जन-सैलाब भी। 

शब्दों में ऐसा इन्द्रजाल
कि जो वह लिखे
वही सम्विधान बन जाए,
न्यायालय दिलाए शपथ
उसकी ही पुस्तकों की।
मेघाच्छादित लगने लगे,
जेठ की दोपहरी-ठिठुरने लगे लू,
बरसने लगे फागुन,
आषाढ़ की तरह,
पतझड़ में दिखने लगे सावन की हरीतिमा,
पाठक उसकी अनुभूति में,
स्वयं विलीन हो जाएँ,
जल में नमक जैसे।

आँसुओं से भर जाए सभागार
उसके रुदन से,
और जब हँसाए,
तो ठहाकों से शहर-का-शहर मतवाला हो जाए,
ज्वालामुखी और भूकम्प से प्रकम्पित होने लगे वसुधा,
उसके रौद्राभिनय से।
वह रसराज, मंचाधिराज था।

किसी की पीड़ा पर,
दहलना,
प्रसन्नता पर 
मचलना,
आवश्यकता पर
पिघलना,
उसके स्वभाव के बिम्ब हैं।

वह बहुत कुछ रहा
वह सब कुछ रहा
पर
कुछ भी होने से पहले
वह मानव रहा,
और मानवता का चरित्र 
उसमें उतना ही रहा,
जितना देवताओं में देवत्व भी न होगा।

पर उसे जानता नहीं कोई भी,
क्योंकि 
उसने नहीं पीटा ढोल कभी
अस्तित्व का
नहीं मचाया शोर
कृतित्व का
नहीं किया ढोंग
व्यक्तित्व का
वह जहाँ, जिस परिस्थिति में था
वहीं रहा।

उसमें विशेषता रहीं बहुत
,
पर वह अज्ञात रह गया।

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