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11.10.20

स्त्रियाँ

स्त्रियाँ भोर का अलार्म होती हैं,

और देर रात की खड़के वाली हल्की नींद।


मुर्गे की बाँग से पहले ही 

खनक उठते बर्तन,

झूम उठती झाड़ू की सींकें,

और महकते गोबर से,

लिपा हुआ चमचमाता घर-आँगन,

और चौबारा होती हैं स्त्रियाँ।


स्त्रियाँ,

बहू होती हैं,

और उसके साथ ही,

चाय की प्याली,

नाश्ते की थाली,

सहित स्त्रियों के ही 

तानों से

झनझना उठता कान होती हैं।


स्त्रियाँ,

माँ होने के साथ ही,

चूल्हे की लकड़ी,

बटुआ भरा भात,

डेक्चा भरी दाल,

और कम-ज़्यादा नमक,

से उठे बवण्डर की मार हैं होती हैं।


स्त्रियाँ, 

पत्नी होती हैं,

और होती हैं 

चकला-बेलन,

जलता हुआ तवा,

सिंकती हुई रोटी,

और दिन भर की थकान के बाद

उनींदी रात में 

पति की हवस का शिकार।


स्त्रियाँ असल में

स्त्रियाँ होती ही नहीं हैं।

स्त्रियाँ तो, 

स्त्रियों के ही मात्स्य-विधान,

पुरुषों के सम्विधान,

और समाज की रूढ़ियों

के ज़ंजीरों से बँधी बेड़ियों की

आजीवन दासी होती हैं।


अब,

निर्भर करता है स्त्रियों पर ही

कि वे इस दासत्व का बोझ,

ढोते ही रहना चाहती हैं अब भी

पीढ़ी-दर-पीढ़ी,

या प्रकृति-प्रदत्त अपने अधिकारों को,

छीन लेना चाहती हैं, 

इस कुत्सित समाज-सत्ता से?


निर्णय स्त्रियों का है...

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