शब्द समर

विशेषाधिकार

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1.9.20

अर्थियाँ

ऐसा नहीं कि पहले कभी नहीं उठी,
या आगे कभी उठेंगी नहीं,
पर जो इस समय उठ रही हैं ये अर्थियाँ|
हृदय को चीरती जा रही हैं,
जैसे खेत को जोतता जा रहा हो हल कोई|
कि जैसे काटी जा रही हो
खड़ी-हरी फसल किसी हसुए से लगातार|
 
ये अर्थियाँ
जो उठ रही हैं अपनों की,
अपनों के कन्धों पर,
निहानी पर पटकते हुए हथौड़े की तरह
तोड़ती जा रही हैं पुट्ठे को|
 
ये अर्थियाँ,
जो सम्बन्धों को
सम्बन्धों से
सूखे पत्ते की तरह तोड़ती जा रही हैं डाल से,
छुड़ा रही हैं मुँह बच्चों का
उनकी माँ के स्तन से,
झटक दे रही हैं हाथ
बूढ़े माँ-बाप के हाथ से,
लगता है जैसे पतझड़ आ चुका है
द्वादश माह के लिए|
 
हे काल!
क्या तेरे हृदय के कोने में,
कहीं भी
एक छोटा-सा भी ऐसा हृदय नहीं है?
जो उठ रही इन अर्थियों की
चीत्कार को समझ सके?
इन अर्थियों के रक्त-संगियों के
क्रन्दन को सुन सके?
लगा सके स्नेह-लेप
अर्थियों से लगे अमिट घाव में?
जो पी सके
अर्थियों से उपजे अवसाद को?
यह है विदित
अर्थियों को उठने का क्रम
न टूटा है,
न टूटेगा
किन्तु
क्या तू अर्थियों के देह की आयु भी नहीं देख सकता?

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