एक अजब सा सूनापन छाया रहता है,
आँखों की कोरों पर,
जो न जाने कब से
तुम्हारी ही बाट जोह रही हैं|
तुम, जो टपक गये थे,
कल बूँद बनके
मेरी तकिया पर,
और हो गये थे स्थिर बहुत देर तक,
जिसे मैं बिसूरती रही थी,
तब तक,
जब तक,
न हो गये पूरी तरह से विलीन
तकिया के तह में|
मैं हर रात बन्द कर लेती हूँ अपनी पलकें,
ताकि
देख सकूँ तुम्हें अपनी पूरी नज़र से,
रोक सकूँ तुम्हें सारी रात अपने भीतर,
लेकिन तुम हो
कि कोई-न-कोई बहाना बना ही लेते हो,
और मैं बावरी,
झपका देती हूँ, पुतलियों को,
और तुम बह निकलते हो|
पूरी तरह से निकलने से पहले,
मैं रोक लेती हूँ तुम्हें,
अपनी बरौनियों पर भी,
पर तुम कब रुकने वाले होते हो?
अपना खारापन मेरे चेहरे पर बिखेर ही देते हो|
बेबस मैं,
भीगी हुई आँखें,
और सूजे हुए कपोलों को चलती हूँ,
लोगों की नज़रों से बचाकर,
कि कहीं वे हँस न दें,
तुम्हारी बेवफ़ाई पर|