शब्द समर

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16.1.17

सतरंगी-इन्द्रजाल

एक अजीब सी सरसराहट होती है
नस-नस में,
जब तुम्हारी छुअन
चुपके से करती है सरगोशी,
बदन के किसी पोर पर।

अंग-अंग चमक उठता है,
जैसे गा रहा हो कोई दीपक राग,
हवाओं में बसकर।
तुम्हारी अँगुलियों के राग मल्हार से
चिलचिला उठती हैं बूँदें,
और भीग जाती है पूरी देह,
जैसे आज यहीं बरसा हो, पूरा-का-पूरा सावन।

अनायास ही पलकें छुपा लेती हैं,
अपनी पुतलियों को
कि कहीं देख ना लें वे,
बिजली सी चमकती तुम्हारी आँखों को।
कानों ने खोल दिए हैं ताले,
अपने पटल के,
ताकि वे सुन सकें,
तुम्हारा पूरा प्रेम।

मन निकल पड़ा है,
किसी अभीष्ट की तलाश में,
और लगाए जा रहा है गोता,
तुम्हारी लहरों के साथ,
खोता जा रहा है,
समुद्र के खारेपन में।

तूफ़ान की तरह तुम्हारा आना,
एक पल में
कर देना मुझे अस्त-व्यस्त,
फिर समेटना,
लरजती हुई मेरी साँसों को,
भर देना भाव संतुष्टि का।

इन्द्रजाल सा यह खेल,
जो कुछ ही क्षणों में हो जाता है अदृश्य,
किन्तु जब तक दिखता है,
जीवन सतरंगी रहता है।

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