अपने मन के अन्तरंग से जूझते हुए,
जब कभी मैं अपने आप से पूछता हूँ
कि मेरा वज़ूद क्या है?
तब मेरी भावनाएँ मुझे धिक्कारती हैं,
आशाएँ दुत्कारती हैं,
मेरी कल्पनाओं की किरणें ठोकर मारती हैं मुझे
और तब मेरा मन मुझसे कहता है,
तुम चन्द साँसों की दीवार में कैद
उस पंछी की तरह हो
जो अन्दर ही अन्दर व्याकुल होता है,
छटपटाता है पिंजरे लडक़र,
उसी के अन्दर आँसू बहाता रहता है अन्त तक
मगर कुछ कर नहीं सकता।
क्यों?
क्यों हर बार हर रिश्ता छल जाता है?
हर कदम पर कोई न कोई बदल जाता है?
क्यों ज़मी नहीं बदलती,
आसमां नहीं बदलता,
ये दुनिया नहीं बदलती,
फिर इंसान क्यों बदल जाता है?
क्यों होता है ऐसा कि लाश तो बदल जाती है
पर लाश का सामान नहीं बदलता?
इंसान बदल जाता है
पर अन्दर का हैवान नहीं बदलता?
मैं पूछता हूँ मुझे क्या हो गया है
कि मैं कुछ करना भी चाहता हूँ
और मरना भी चाहता हूँ?
मैं जानता हूँ कि एक न एक दिन जहाँ से आया हूँ,
वहीं चला जाउंगा,
मिट्टी में पैदा हुआ हूँ,
उसी में मिल
दुनिया, ये रिश्ते,
ये नाते , सब झूठ हैं,
बकवास हैं,
ये वो बुलंदी को चूमती ऊँची दीवारें हैं
जो बाहर से देखने में तो मजबूत
लेकिन अन्दर से सब खोखली हैं।
हकीकत है तो सिर्फ इतना कि कोई अपना नहीं होता
अगर होता तो दुनिया में सपना नहीं होता
एक न एक दिन हर इंसान,
उसकी हर उम्मीद,
हर सपना ,
हर ख्वाहिश खाक में मिल जायेगी
मैं भी जानता हूँ
कि कभी न कभी कोई न कोई साँस तो ऐसी आएगी
जो मुझे इस जीवन
और इसकी दीवारों के बन्धन से मुक्त कर देगी।
फिर न कोई डर होगा,
न कोई टीस होगी,
न होगी किसी की ज़रूरत।
इस ज़िन्दगी की आग में जलने के बाद
मैं शाश्वत आग में झोंक दिया जाउंगा
और फिर खाक में मिल जाउंगा,
खाक में मिलने के बाद
सिर्फ राख बनकर रह जाउंगा।
लेकिन राख बनने से पहले
सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ
कि
आखिर
मेरा वज़ूद क्या है?
शब्द समर
विशेषाधिकार
भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|
khud ki talash me bekhud hue hain hum
जवाब देंहटाएंisi manjil ki talash me bhatakte rahe hain hum
keep on travelling...kabhi to milegi
kahin to milegi..baharon ki manjil raahii...very nice.