"आप कब तक रुकेंगे यहाँ?"
मैंने कहा—
"एक वर्ष से अधिक
तो 'वर्ष' भी नहीं ठहर पाता कहीं;
न ही रुक पाता है 'माह',
अपनी निश्चित अवधि के पार।
'दिन' तो चौबीस घण्टों में ही
बदल जाता है;
और 'घण्टा'—
एक घण्टा भी पार नहीं कर पाता,
स्थिर रहने के लिए।
'कला' का जीवन भी
साठ क्षणों से ऊपर नहीं हो पाता;
और 'क्षण'—
क्षण तो क्षण में ही नष्ट हो जाता है।
बचा बेचारा 'निमेष',
तो वह पलक झपकते ही,
विलीन हो जाता है—
अपनी 'समय-समाधि' में।
तो, मुझसे यह प्रश्न ही अनुचित है,
कि मैं किसी ठौर पर,
कब तक ठहर पाऊँगा!"

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