शब्द समर

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26.7.25

स्मृति की नैतिकता

धीरे-धीरे व्यक्ति भूलने लगता है,
अपकार भी, उपकार भी।

अपकार भूलता है,
तो कृतज्ञता वश,
लगता है देने सम्मान उसी को,
जिसने किया होता है,
कभी घोर तिरस्कार
और अपमान भी कभी।
और जब भूलता है,
उपकार किसी का,
तो होता है कृतघ्न इस प्रकार
कि नहीं हिचकता करने में
तिरस्कृत, उपेक्षित या अपमानित उसे भी,
जो उसकी डूबती नौका का,
रहा था सहारा भी कभी।

अपकार भूल जाना,
एक श्रेष्ठ गुण भी है।
इससे व्यक्ति के महान बनने के,
खुलते हैं मनः एवं व्यक्तित्व द्वार,
परन्तु उपकार भूलना...?

उपकार करना
जितना ही है श्रेष्ठतम कार्य,
उसे भूलना
नीचता की पराकाष्ठा है।
यह कृत्य,
व्यक्ति के व्यक्तित्व को न मात्र
नाराधमता की ओर
खींच ले जाता है,
बल्कि उसके अधमपन को
सर्वत्र प्रदर्शित भी कर देता है|

अतः अपकार भूल,
यदि उपकार न भी कर सकें,
तो न करें कोई खेद मन में,
परन्तु उपकार भूलकर,
अपकार न करें किसी का,
प्रयास करें यहाँ तक
कि शत्रु का भी पीठ पीछे अहित न हो।

20.7.25

ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ...?

ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?
कैसे तोहें निज पीर सुनाऊँ?
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

नैहर में थी मैं प्यारी चिरैया
सासुर में मोहे बँधी हथकड़िया
कैसे तोहें अपना दर्द दिखाऊँ?
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

मायरि की मैं प्राण पियारी
बाबुल की तो रानी सुकुमारी
सासुर का कहते मैं शरमाऊँ
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

ना रुचि भोजन ना रुचि जीवन
ना रुचि बोलन ना रुचि पहिरन
दूसर रुचि मैं समय बिताऊँ
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

गुणी भले हूँ पर नहीं कोई गिनती
निज अधिकार भी पाऊँ करि विनती
भले हूँ सबल पर अबल कहाऊँ
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

सुन्दर मुख पर रहूँ कर पर्दा
शक्ति समस्त लिये फिरें मर्दा
बोलन पर निज जान गवाऊँ
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

कभी बोलें सास कभी रे ननदिया
जिठानी लड़ें जैसे लड़े रे कंजरिया
छोटका देवर को मैं कैसे समझाऊँ?
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

गाँव समाज बना जैसे पिंजरा
नजर गड़ाए डरत मोर जियरा
कैसे के मैं निज लाज बचाऊँ?
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?





7.7.25

प्यार का खारापन

उसने कहा,
"बहुत अरसा बीत गया,
तुमसे बात नहीं हुई|
न मोहब्बत की हमने,
न गिले हुए,
न शिकवे किये|
ऐसा लगता है,
जैसे जी नहीं रहे हैं,
बस जी रहे हैं|"

मैंने कहा,
"मैं तुम्हें याद हूँ,
तुम मेरे दिल में हो|
मैं जी रहा हूँ तन्हा,
तुम अपनी महफ़िल में हो,
मैं बतिया लेता हूँ तन्हाई से,
और तुम आँसुओं से|
न तुम मुझसे जुदा हुई,
न मैं हुआ दूर तुमसे;
बस कुछ रस्में हैं
जिनकी बेड़ियों में
तुम बंधी हो,
और मैं भी जकड़ दिया गया हूँ|

तुम अपने अश्क़ों का भेजो ख़त मुझे,
और मैं भी भेजता हूँ पैग़ाम तुम्हें
अपनी बेबसी का|
दोनों इसी में खो जाएँ,
जैसे भी जी रहे हैं
चलो,
सारा खारापन पी जाएँ
|"

2.7.25

तुम स्त्री हो-हुँकार दो

तुम स्त्री हो,
चाहे कवयित्री हो, अभिनेत्री हो,
नृत्यांगना हो, वीरांगना हो,
सिद्ध हो, प्रसिद्ध हो,
अनाम हो, या सनाम हो,
परन्तु स्त्री ही;
तुम्हारा नाम है|

तुम हो शैशव काल में,
तरुणाई की चाल में,
यौवन तुम्हारे भाल में,
या पूर्ण वार्धक्य हो खाल में,
किन्तु लैंगिक रूप से;
स्त्री ही हो तुम त्रिकाल में|

चाहे तुम सृजित हो, तुम पूजित हो,
तुम सेवि हो, तुम देवि हो,
तुम माता हो, जगदाता हो,
तुम मित्र हो, या पवित्र हो,
परन्तु स्त्रीत्व ही;
तुम्हारा चरित्र है|

मन में तुम्हारे ममता है,
हृदय में कोमलता है,
सबके प्रति समता है,
वंश, ध्वंस की क्षमता है,
परन्तु स्त्रीत्व ही;
तुममें रमता है|

चाहे तुम सबला हो, तुम चपला हो,
तुम दिव्य हो, तुम भव्य हो,
तुम क्षेम हो, तुम प्रेम हो,
या तपस्विनी हो, या ओजस्विनी हो,
परन्तु स्त्रीत्व ही;
तुम्हारी दैनन्दिनी है|

तुम भक्ति हो, तुम शक्ति हो,
तुम श्रेय हो, तुम ज्ञेय हो,
तुम मान हो, सम्मान हो,
तुम गीत हो, तुम जीत हो,
परन्तु स्त्रीत्व ही:
तुम्हारी रीत है|

तुम स्त्री हो,
तुम्हारे स्त्री होने को,
और अपने आप से
निम्न होने, अल्प होने जैसे
विषाक्त भावों का आभास
करते व कराते हैं, वे,
जिन्होंने नाद में डूबकर बदल ली है
रंग अपनी चमड़ी की,
जो स्वयं बहिर्रूप से,
प्रदर्शित होते हैं शुभचिन्तक तुम्हारे,
परन्तु खाल के भीतर
इनकी धमनियों में बहता है,
कलुषित रक्त
प्रति तुम्हारी देह, तुम्हारी सुन्दरता,
तुम्हारे भावों-विचारों की अभिव्यक्ति के|
इन शृगालों की दृष्टि में
तुम होती हो एक मृगा मात्र,
जिसे ये जम्बुक देखते हैं अपनी
कुटिल व तीक्ष्ण दृष्टि सहित-
लोलुप जीह्वा से,
और
चुभा देना चाहते हैं,
समस्त दन्तपंक्तियाँ तुम्हारी देह में,
चबा जाना चाहते हैं,
तुम्हारा तन, मन, अस्तित्व, कृतित्व, सतीत्व, मान-मर्यादा सहित-
समस्त प्रतिष्ठा तुम्हारी|

परन्तु सुनों,
तुम स्त्री हो,
और तुम्हारा स्त्री होना ही द्योतक है
कि तुम हो क्षमतावान, शक्तिमान हो सामर्थ्यवान हो|
अपनी मुष्टि-प्रहार से
दन्तहीन कर डालो,
उन समस्त अरण्यश्वानों को,
रज-धूल से दृष्टिहीन कर दो,
वकभक्तों को|
जिह्वा निकाल
बना लो प्रत्यंचा समस्त गिरदानों की,
और सिंघणी सम हुँकार से
कर दो रहस्योद्घाटन
रंगे सियारों का|
कर दो घोषणा समस्त ब्रह्माण्ड में
कि तुम स्त्री हो,
और
अनिच्छा से नहीं कर सकता स्पर्श कोई भी तुम्हें,
चाहे हो वह दानव, मानव या साक्षत देव ही,
और यदि किसी ने की धृष्टता
तो दुर्योधन की जंघा
अब भीम नहीं,
तुम स्वयं तोड़ोगी|