शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

7.7.25

प्यार का खारापन

उसने कहा,
"बहुत अरसा बीत गया,
तुमसे बात नहीं हुई|
न मोहब्बत की हमने,
न गिले हुए,
न शिकवे किये|
ऐसा लगता है,
जैसे जी नहीं रहे हैं,
बस जी रहे हैं|"

मैंने कहा,
"मैं तुम्हें याद हूँ,
तुम मेरे दिल में हो|
मैं जी रहा हूँ तन्हा,
तुम अपनी महफ़िल में हो,
मैं बतिया लेता हूँ तन्हाई से,
और तुम आँसुओं से|
न तुम मुझसे जुदा हुई,
न मैं हुआ दूर तुमसे;
बस कुछ रस्में हैं
जिनकी बेड़ियों में
तुम बंधी हो,
और मैं भी जकड़ दिया गया हूँ|

तुम अपने अश्क़ों का भेजो ख़त मुझे,
और मैं भी भेजता हूँ पैग़ाम तुम्हें
अपनी बेबसी का|
दोनों इसी में खो जाएँ,
जैसे भी जी रहे हैं
चलो,
सारा खारापन पी जाएँ
|"

2.7.25

तुम स्त्री हो-हुँकार दो

तुम स्त्री हो,
चाहे कवयित्री हो, अभिनेत्री हो,
नृत्यांगना हो, वीरांगना हो,
सिद्ध हो, प्रसिद्ध हो,
अनाम हो, या सनाम हो,
परन्तु स्त्री ही;
तुम्हारा नाम है|

तुम हो शैशव काल में,
तरुणाई की चाल में,
यौवन तुम्हारे भाल में,
या पूर्ण वार्धक्य हो खाल में,
किन्तु लैंगिक रूप से;
स्त्री ही हो तुम त्रिकाल में|

चाहे तुम सृजित हो, तुम पूजित हो,
तुम सेवि हो, तुम देवि हो,
तुम माता हो, जगदाता हो,
तुम मित्र हो, या पवित्र हो,
परन्तु स्त्रीत्व ही;
तुम्हारा चरित्र है|

मन में तुम्हारे ममता है,
हृदय में कोमलता है,
सबके प्रति समता है,
वंश, ध्वंस की क्षमता है,
परन्तु स्त्रीत्व ही;
तुममें रमता है|

चाहे तुम सबला हो, तुम चपला हो,
तुम दिव्य हो, तुम भव्य हो,
तुम क्षेम हो, तुम प्रेम हो,
या तपस्विनी हो, या ओजस्विनी हो,
परन्तु स्त्रीत्व ही;
तुम्हारी दैनन्दिनी है|

तुम भक्ति हो, तुम शक्ति हो,
तुम श्रेय हो, तुम ज्ञेय हो,
तुम मान हो, सम्मान हो,
तुम गीत हो, तुम जीत हो,
परन्तु स्त्रीत्व ही:
तुम्हारी रीत है|

तुम स्त्री हो,
तुम्हारे स्त्री होने को,
और अपने आप से
निम्न होने, अल्प होने जैसे
विषाक्त भावों का आभास
करते व कराते हैं, वे,
जिन्होंने नाद में डूबकर बदल ली है
रंग अपनी चमड़ी की,
जो स्वयं बहिर्रूप से,
प्रदर्शित होते हैं शुभचिन्तक तुम्हारे,
परन्तु खाल के भीतर
इनकी धमनियों में बहता है,
कलुषित रक्त
प्रति तुम्हारी देह, तुम्हारी सुन्दरता,
तुम्हारे भावों-विचारों की अभिव्यक्ति के|
इन शृगालों की दृष्टि में
तुम होती हो एक मृगा मात्र,
जिसे ये जम्बुक देखते हैं अपनी
कुटिल व तीक्ष्ण दृष्टि सहित-
लोलुप जीह्वा से,
और
चुभा देना चाहते हैं,
समस्त दन्तपंक्तियाँ तुम्हारी देह में,
चबा जाना चाहते हैं,
तुम्हारा तन, मन, अस्तित्व, कृतित्व, सतीत्व, मान-मर्यादा सहित-
समस्त प्रतिष्ठा तुम्हारी|

परन्तु सुनों,
तुम स्त्री हो,
और तुम्हारा स्त्री होना ही द्योतक है
कि तुम हो क्षमतावान, शक्तिमान हो सामर्थ्यवान हो|
अपनी मुष्टि-प्रहार से
दन्तहीन कर डालो,
उन समस्त अरण्यश्वानों को,
रज-धूल से दृष्टिहीन कर दो,
वकभक्तों को|
जिह्वा निकाल
बना लो प्रत्यंचा समस्त गिरदानों की,
और सिंघणी सम हुँकार से
कर दो रहस्योद्घाटन
रंगे सियारों का|
कर दो घोषणा समस्त ब्रह्माण्ड में
कि तुम स्त्री हो,
और
अनिच्छा से नहीं कर सकता स्पर्श कोई भी तुम्हें,
चाहे हो वह दानव, मानव या साक्षत देव ही,
और यदि किसी ने की धृष्टता
तो दुर्योधन की जंघा
अब भीम नहीं,
तुम स्वयं तोड़ोगी|

10.6.25

प्रेम-एक मानवीय अनुभव

 

प्रेम करना,
होना
या प्रेम में पड़ जाना,
नहीं है अनुचित या आपराधिक कृत्य
किसी भी दृष्टीकोण से|
यह सजह और स्वभाविक प्रक्रिया,
हो सकती है किसी को भी,
किसी से भी, कभी भी|

प्रेम है एक जटिल भावना,
जिसमें होती हैं सम्मिलित विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाएँ-
आकर्षण, लगाव और वासना,
साथ ही समावेश होता है इच्छा रूपी अभिलाषा,
एवं भावना व चेतना रूपी सम्वेदनाओं का|

प्रेम है,
एक मानवीय अनुभव,
जो व्यक्ति को व्यक्ति से जुड़ने में होता है सहायक,
और भरता है
आनन्द, प्रसन्नता व सन्तुष्टि का भाव|

जब किसी को देख, सुन कर भी
मन हो जाता है आल्हादित,
और नहीं जागती अन्य इच्छा कोई-
ऐसा प्रेम सन्तुष्टि-मार्ग का प्रेम होता है|
वह प्रेम,
पवित्र, निष्पाप, निःस्वार्थ, निष्काम और
निर्मल प्रेम होता है|
परन्तु,
जब येन, केन, प्रकारेण
प्रेमी को अपना लेने की इच्छा हो जाती है प्रबल,
साम, दाम, दण्ड, भेद होने लगता है प्रयोग-
यह तृषाग्नि धर लेती है रूप वासना का,
और नष्ट कर डालती हैं,
प्रेम की समस्त सम्भावनाओं का|

प्रेमी को प्राप्त करने की,
जैसे ही प्रज्ज्वलित है उत्कट भावना,
प्रेम वहीं हो जाता है धराशायी,
और पापमय वृत्ति,
दुरीच्छा लिए अपनी निरंकुशता के साथ  
जमा लेती है शासन अपना|

वासना,
रति, काम, भोग की लिप्सा लिए,
छल-छद्म, और कपट को शस्त्र बना,
क्रुद्ध भावों के साथ,
चल पड़ती है अपराधों की दिशा में,
और कर डालती है,
जघन्यतम दुष्कृत्य|

किसी को
पाने की इच्छा रखना,
नहीं है किसी भी प्रकार से दोषमय,
परन्तु उसके लिए दुर्योधनीय कृत्य
मानवीयता का उल्लंघन,
व अपराधों की चरम सीमा को प्राप्त कर जाना है|

अविवाहित वयस्कजनों!
यह विशेष सम्बोधन आपको है-

निःसन्देह आप पड़ सकते हैं प्रेम में किसी के भी,
और पाल सकते हैं स्वप्न आजीवन सह-गमन का,
आप वह कीजिए,
क्योंकि वह है आपका अधिकार|
जब आपके माता-पिता या अभिभावक जन,
किसी और से बाँध रहे हों बन्धन आपका,
आपकी अनिच्छा से,
तब आप कीजिए विरोध उनका सम्पूर्ण शक्ति से,
अड़ जाइये, हठ कर लीजिए,
मत कीजिए विवाह उनसे,
जिनसे आपकी नहीं है चाहत तनिक भी,
इसे आप अपना कर्तव्य भी मान सकते हैं|
यदि नहीं हो रहा सम्भव आपसे,
तो लीजिए सहयोग
सम्वैधानिक व प्रशासनिक शक्तियों का,
परन्तु विवाहोपरान्त,
अपने जीवन-संगी को,
मारिये मत, सताइए मत,
मत कीजिए प्रताड़ित उन्हें,
जो अब आपके सुख-दुःख के हो चुके हैं साथी
अन्तिम श्वास तक|
यदि नहीं हो रहा सम्भव सहचर,
तो निःसंकोच हो जाइये विलग एक-दूसरे से,
विवाहोपरान्त भी,
परन्तु  किसी अन्य की लिप्सा में,
अपने पति या पत्नी की हत्या तो मत कीजिए|
अपने परिजनों के कृत्य का दण्ड,
उन्हें क्यों देना,
जो आपसे पूर्व आपको जानते तक नहीं थे?
यह हत्या कोई दोष नहीं,
अक्षम्य अपराध है|

अभिभावक जन,
यह सम्बोधन अतिविशिष्ट है आपसे,
कि यदि आपकी सन्तान का
लगा है मन कहीं,
किसी और में,
वह है किसी से प्रेम में,
जो है आपकी इच्छा के विपरीत,
तो अपनी जाति, धर्म, वैभव, ऐश्वर्य,
के रूप में विद्यमान,
प्रतिष्ठा, परम्परा और अनुशासन की बलि
मत चढ़ाइए अपने बच्चों को|
आप मनाइये अपने मन को,
समझाइये स्वयं को,
और यदि नहीं मान रहे
आपके मन, आपकी आत्मा,
तो भय खाइये अपने ईश्वर से,
राष्ट्र के सम्विधान से,
कि किसी के जीवन का निर्णय लेना,
है बाहर आपके अधिकार क्षेत्र से|
आप स्वयं सोचिये,
जिन बच्चों को पाला है आपने,
अपना रक्त सींचकर,
क्या उनका बहता हुआ रक्त,
आपको सोने देगा सुख भरी नींद कभी? 

प्रेमियों,
आप हैं चाहे तरुण, कैशोर्य, युवा, प्रौढ़ा या जरावस्था में,
आपको प्रेम हो ही सकता है,
वह सम या विपरीत लैंगिक आकर्षण से,
पूर्वजों की सम्पत्ति से,
अपनी क्रय की हुई किसी वस्तु से
या इस जगत में अवस्थित किसी भी
ठोस, द्रव, वायु रूपी द्रब्य पदार्थ से|
परन्तु उसकी प्राप्यता हेतु
आप न करें,
घृणित कर्म कोई|
अपने प्रेम को कृष्णमय बनाएँ,
जिसमें मात्र-और-मात्र प्रेम ही हो सुवासित|

इस सुन्दर सृष्टि को बनाइए
योग्य जीवन के,
इसे प्रेम से अभिसिंचित कर,
स्वर्णिम व स्वर्गमय बनाइये,
इसमें अपराधों का विष घोलकर,
इसे नारकीय रूप देने से बचें,
कि मानव होने के नाते
यही है कर्तव्य हम सभी का|

1.5.25

मैं श्रमिक हूँ


मैं श्रमिक हूँ
,
श्रम ही मेरा आलम्बन है।

मेरी नींद, मेरी भूख,
मेरी श्वास, मेरा रक्त
सब हैं
मेरे श्रम के भक्त।

मैं श्रमिक हूँ,
श्रम ही मेरा आधार है।
मेरा फावड़ा, मेरा लैपटॉप,
मेरी यात्रा, मेरी कुदाल,
सब हैं
मेरे मस्तक-भाल।

मैं श्रमिक हूँ,
श्रम ही मेरा अभिमान है।
मेरे भाव, मेरी सोच,
मेरी दृष्टि, मेरा रंग
सब हैं
मेरे जीवन-रंग।

मैं श्रमिक हूँ,
श्रम ही मेरा अधिकार है।
मेरा भूत, मेरा भविष्य
मेरा वर्तमान, मेरा काल
सब हैं
मेरे जीवन-जाल।

मैं श्रमिक हूँ
और बिना श्रम
मुझे न रोटी मिले,
न मिले सुख-चैन। 

2.3.25

छँटनी की मार, निरुद्यम-बेरोजगार

कल तक हम निश्चिन्त थे,
है जीवन में आराम;
आज हमारे के हाथ से,
छिन चुका है काम।

प्रसन्नता की बलि चढ़ी,
लगा बड़ा आघात;
विपन्नता के दिन बढ़े,
मन में बढ़ा अवसाद।
पूर्णिमा की रात में,
दिखे अमावस शाम;
आज हमारे के हाथ से,
छिन चुका है काम।

अधिकोष* का ब्याज है,
उधार हाट का बाकी;
मित्रों से भी ऋण लिए,
चुकाऊँ कैसे वा की?
हाथ पसारे दिन ढले,
आँसू ढलती शाम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

रोटी की चिन्ता हुई,
भाड़ा घर का देना है;
शुल्क बच्चों का भरना है,
दवा माँ-बाप की लेना है।
एक-एक पाई के लिए,
तरसूँ आठों याम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

पत्नी की इच्छा मरी,
हुई बहुत उदास;
पति भी बिन मारे मरा,
कोई न फटके पास।
कल तक जो घनिष्ठ थे,
लगे अपरिचित नाम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

आँखों से आँसू झरते,
हृदय चाप बढ़ने लगा;
दर्प-भाव अब चूर हुआ,
चिन्ताग्नि में जलने लगा।
कौन-से पूजूँ इष्ट को?
जाऊँ अब किस धाम?
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

कार्यालय-से-कार्यालय दौडूँ,
व्यक्तिवृत्त** लिए हाथ;
जूता टूटा, चप्पल टूटी,
मिला न फिर भी साथ।
चपरासी भी आज तो
लगता बड़ा-सा नाम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

*बैंक
**
बॉयोडाटा

4.1.25

मेरी आवाज़ सुनो

मेरी आवाज़ सुनो,
सुनो, पीड़ा, व्यथा, कराह से भरा क्रन्दन मेरा।
सुनो, मेरी बिवाइयों, छालों, फफोलों से
बहते आँसुओं को।
सुनो, टूटे जबड़ों, बिखरी पसलियों, निकली अन्तड़ियों का रक्त प्रवाह मेरा।

कचरे गए आटे, तोड़े हुए चूल्हे, फेंक दी गईं रोटियों की भूख सुनो
लूटी गई बाल्टी, काटी हुई रसरी, रूँध दिए गए कुएँ की प्यास सुनों।
काटे हुए छज्जे, तोड़ी गई दीवार, खाली कराए गए आँगन की उजाड़ सुनो।

फाड़ी गई अँगिया को सुनो,
सुनो खरोंचे गए बदन को
और नोच दी गई इज़्ज़त की
चीत्कार सुनो।

सुनो विदीर्ण मस्तक की रेखाओं को,
भग्न कशेरुका की विपदाओं को सुनों
और सिर-से-पाँव तक लथपथ
निर्दय लाठी की मार को सुनो।

सुनो बिना मूल्यांकन की विफलता को,
युवावस्था की असफलता को सुनो
और सफलता हेतु उठाई हुई आवाज़ के लिए,
चेहरे पर किये गए
बूटों का प्रहार सुनो|

तुम सुनो
कि नहीं हो बहरे तुम,
देखो मुझे,
कि तुम्हारी आँखें भी हैं सही सलामत
करो कुछ
कि हाथ हैं बचे साबुत तुम्हारे
चलो साथ मेरे
कि जान है बची तुम्हारे पैरों में।

तुम विचारवान हो,
ज्ञानवान हो तुम,
तुम ही शक्तिशाली भी। 

मैं हाथ जोड़कर गला फाड़ कर
चीख-चीखकर रहा हूँ पुकार तुम्हें,
सुनो!
मेरी आवाज़ सुनो...