शब्द समर

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7.10.25

हम जो कुकुरमुत्ते ही रहे…

हम आदि से अब तक,
कन्दमूल की भाँति,
गड़े पड़े थे मिट्टी के भीतर कहीं —
सघन वनांचलों,
पहाड़ों की अँधेरी गुफाओं,
नदियों के किनारे,
बिना इस भान के
कि हम वनवासी हैं,
या है हमारा अस्तित्व कुछ और भी।

हम प्रकृति
और वर्षा-जल पर आश्रित,
उसके ऋतुओं पर विश्वास के साथ,
मौसमी रहे आए।

कालान्तर में,
हम पर पड़ी दृष्टि कुछ भूखे सैलानियों की।
उन्होंने हमें खोद निकाला,
आलू-अरबी की तरह।
और दिखाई हमें ब्रोकली और गोभी
की सुन्दरता।
साथ ही किया प्रेरित,
प्राप्त करने को सौन्दर्य उतना ही।
दिखाया गया स्वप्न —
निखारने को रंग हमारा,
कि
स्याह-धूसर वर्ण
बन जाएगा श्वेत और चमकदार।

स्वभावानुसार, हम भी हुए मोहित,
और जीने की इच्छा हुई
बैंगन-भिण्डी की तरह।
जिस प्रकार नेनुआ-तोरई में
नहीं आने दिया जाता
 स्वाद कभी
कद्दू-लौकी का
,
उसी प्रकार, हम भी नहीं बन पाए —
परवल, शिमला मिर्च, सेम बीज या मटर कभी।

सैलानियों की दिखाई दुनिया को देखने,
शलजम, चुकन्दर की तरह
जैसे ही निकाला गर्दन थोड़ा-सा —
हम काट दिए गए मूली-गाजर की तरह,
और चीरे गए पालक-चौंराई बनाकर।
हम काटे और चीरे ही गए थे,
कि तभी ज़िन्दगी ने हमें कूट दिया,
सोंठ और अदरक की तरह।
फिर कई लोग आए,
सेवक और हमदर्द बनकर,
और हमारी ज़िन्दगी को
प्याज़ के छिलके की तरह उतारने लगे,
नीछने लगे लहसुन की कली बनाकर। 

हमारी ज़िन्दगी में भरी —
करेले की कड़वाहट,
और हरी मिर्च के तीखेपन से
आँसू झरने की तरह बह निकले।
और वे —
टमाटर, नींबू, में काला नमक मिलाकर,
लेने लगे चटखारे हमारे दर्द का,
और बेचने लगे,
मसाले मिलाकर
एवाकाडो के समाचार के रूप में|

तेज पत्ता की तरह तड़के में पड़ने वाले हम,
कड़ाही में ही जलते रहे,
पर कभी
धनिया पत्ती बन महक नहीं पाए।
तेल में सबसे पहले खौला देने के बाद भी,
अपने होने का
न ही किसी को एहसास करा पाए।

लोगों की बातों में आकर,
हम चले तो थे —
मशरूम बनकर,
अपनी छतरी को आसमान में फैलाने,
पर एक वर्ग आज भी है
जो हमें कुकुरमुत्ता ही कहता है,
खाना भी नहीं चाहता,
और कटहल में लगे काँटे की ही भाँति
हम उपेक्षित रहे आए| 

सदियाँ बीत गईं —
हमें खोदे हुए,
निकाले हुए,
धोए हुए।
पर आज तलक हमें
न तो गोभी की सुन्दरता मिली,
न ही ब्रोकली वाला भाव।

हम आज भी आदिवासी कन्दमूल की ही तरह
अपना भावहीन, अर्थहीन जीवन जी रहे हैं।
और वे —
सब्ज़ियों का व्यापार करके
करोड़पति बन चुके हैं। 

26.9.25

हे माधव!

जब श्याम मेघ भी सूखें हों,
और धरती हो ऊसर-बंजर,
जब पवन अग्नि की ज्वाला हो,
और वृक्ष दिखें निर्जर-जर्जर।

जब रात्रि गहन अँधेरी हो,
और जीवन आशा-हीन लगे,
जब मार्ग लगें भयकर सारे,
और वाणी भाषा-हीन लगे।

जब साथ न हो मैत्री कोई,
और एकल-जीवन वासी हो,
जब उल्लास पतित हो नेत्रों से,
और सर्वांग पूर्ण उदासी हो।

तब हाथ तुम्हारा आता है —
हे केशव! मेरे सखा, सुनो,
तब साथ तुम्हारा आता है —
हे माधव! तू ही दिखा, सुनो।

मातृ-पितृ का स्नेह मिला,
भ्राता-भगिनी से पूर्ण किया,
वसुधा-सम कुटुम्ब दिया,
जीवन-रस सम्पूर्ण दिया।

उजाड़, निर्जन उपवन में,
तुमने जो सुमन खिलाया है,
तन-मन से मैं तृप्त हुआ,
जीवन सम्पूर्ण ही पाया है।

कृष्ण दिया, कृष्णा दिया,
मधुवन को मधुमास दिया,
निर्मल-निश्छल हृदय दिया,
दिव्य शान्ति का वास दिया।

अब और न माँगूँ कुछ तुझसे —
ओ मोहन! मेरे मित्र, सुनो,
अनुसरण करूँ शरण तेरी,
और चित में तुम्हारा चित्र, सुनो।

25.9.25

यारियाँ

यारियाँ नहीं होतीं टूटने को
जो टूट जाएँ, यारियाँ नहीं होतीं|

मुश्किलों से उबरना है नहीं आसाँ  
जो उबर जाएँ, दुश्वारियाँ नहीं होतीं| 

बेकाम हैं जवानियाँ आजकल  
जो काम आ जाएँ, बेकारियाँ नहीं होती| 

बे-तआल्लुक़ है ज़िन्दगी उनकी
जो बे-तार्रुफ़ हो जाएँ, वफ़ादारियाँ नहीं होतीं|

ज़िन्दगी का सौदा ज़िन्दगी नहीं होती
जो ज़िन्दगी हो जाएँ, करोबारियाँ नहीं होतीं|


18.9.25

वेदना की सहचरी-स्त्री

चिकित्सक बोले –
“देवि, आवश्यक है आपको पूर्ण विश्रान्ति।
नितान्त शैय्या-विश्राम ही देगा त्राण
इस कटि-पीड़ा से!”

विनम्र निवेदन है, वैद्यवर –
क्या यह सम्भव है यथार्थ में?
कि एक स्त्री,
जो जी रही है मातृत्व का सतत जीवन,
जो है पत्नि किसी पुरुष की,
गृहिणी एक विस्तृत कुल की,
जहाँ वास करते हैं –
सास-श्वसुर,
ज्येष्ठ-जिठानी,
और घर के अन्य अंग।

जहाँ दिन नहीं होता विश्रान्त,
रात्रि नहीं होती रिक्त।
जहाँ अष्टयाम चलती है
कर्तव्यों की शृंखला।
जहाँ मेरी कर्मठता
ही आधार है-
परिवार के सन्तुलित धुरी की,
और मेरी थकान की भी,
कभी नहीं होती किसी को चिन्ता।

वैद्यराज!
कोई ऐसा उपचार बताइए,
जो कर सके इस वेदना का शमन,
पर न बाधित हो
मेरी गृह-कर्तव्यों की निरन्तरता।

दीजिए कोई औषधि –
जो दे सके क्षणिक शान्ति भी,
और दीर्घकालिक सामर्थ्य भी,
ताकि मेरा श्वसुराल रहे प्रसन्न,
और मैं न कहलाई जाऊँ –
"आलसी", "अकर्मण्य", या
"आजीवन व्याधिपीड़ित"।

जब स्त्री ने कही
अपनी पीड़ा की यह अन्तर्वेदना,
तो वैद्य ने कर लिया धारण मौन।
पुनः कुछ क्षण के,
दीर्घ श्वसित हो बोले –

“हे देवि,
यदि आप हैं इस समाज की स्त्री,
तो फिर यह पीड़ा
आपकी सहचरी ही कहलाएगी।
चाहे आप हों स्त्री किसी
कुलीन की,
या मलिन गृह-वासी हों।
आप हों
विस्तारित-परिवार में,
या जीती हों नितान्त
निजी, एकल जीवन। 

स्त्रियों के लिए यह संसार
वेदना-रहित नहीं है।
पीड़ा और स्त्री
सहोदरी न हों भले ही,
परन्तु सखियाँ अवश्य हैं –
जो जीवनभर साथ निभाती हैं,
और साथ छोड़ती हैं
मात्र उसी क्षण,
जब स्त्री मुक्त होती है
इस भव-सागर से।”

30.8.25

मोर नहीं भए मोरे सँवरिया

भोर भयी घनश्याम न आए
बाट जोहत मोर बीती रे रतिया

किस सौतन संग रास रचायो
सुधि करि करि मोर बिहरे रे छतिया

मुझ बिरहन पर तरस न आई
ऐसी लुभा के गई रे सवतिया

रंग भी श्याम औ अंग भी कारो
साँवली सूरत मोहनी मुरतिया

माखनचोर ने हृदय चुरायो
मोर नहीं अब मोर सुरतिया

पीर हिया की कासूँ सुनाऊँ

मोर नहीं भए मोरे सँवरिया।

भारत की आत्मा की ओर

लोग कहते हैं, "तुम घूमते रहते हो।"
मैं भी कहता हूँ, "हाँ, मैं घूमता रहता हूँ।"

मैं घूमता रहता हूँ,
क्योंकि मुझे घूमना
है पसन्द;
पर मात्र इसलिए नहीं घूमता,
कि मैं घूमना चाहता हूँ।
मैं इसलिए भी घूमता हूँ,
ताकि घूम-घूमकर
मैं घूम सकूँ भारतवर्ष को,
और जान सकूँ इसकी विशेषता को।

मेरा घूमना
नहीं होता घूमना मात्र —
चमकती कारों में,
सुन्दर-चमकीली सड़कों पर।
मेरा घूमना होता है —
सुदूर गाँवों, दुर्गम वनांचलों में,
जहाँ
मैं चलता हूँ कोसों पैदल,
चढ़ता हूँ उत्तुंग पर्वतमालाओं पर,
लाँघता हूँ हहाती-उफनाती नदियों को,
धँसता हूँ पिण्डलियों तक कीचड़ों में,
काँटों से उलझते-जूझते हुए
पहुँचता हूँ उन तक भी,
जो सदियों से
कटे हैं —
कथित इस सभ्य समाज से।

मेरा घूमना नहीं होता घूमना मात्र;
मेरे घूमने में
होती है भेंट —
जली हुई उघड़ी देह,
काँटों से बिंधे नंगे पाँव,
चिपचिपे, रूखे, उलझे केश,
कपाल में धँसी हुई आँखों में कीचड़,
पीठ से चिपकी हुई अन्तड़ियाँ,
और हृदय में अपार सम्मान लिए
धरणी-पुत्रों
और ग्राम्य-वधुओं से —
जिनमें होती है
प्रसन्नता और हर्ष,
तो वहीं छिपी होती है — किसी की पीड़ा-व्यथा,
जो वर्षों से,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी,
उनके जन्म के पूर्व से ही
चिपक जाती है साथ उनके।

मैं बैठ उनकी पंगति में,
उनके चूल्हे में
चुरे भात-दाल को खाता हूँ
बड़े ही चाव से।
खोल कर रख देता हूँ अपने कान,
मन को कर देता हूँ स्थापित उनके समक्ष,
ताकि पीड़ित की पीड़ा को
मैं कर सकूँ एकाकार स्वयं से।

समस्या रूपी अजगर से जकड़े लोग
नहीं जानते जतन अपनी त्राण का।
मेरे घूमने में जटिल-से-जटिल समस्या
होती है हल;
होते हैं समाधान उनके निवारण के —
जिनका अनुसंधान करते हैं
हम मिलजुलकर, एकजुटता से।

मेरे घूमने में
हमारे सुख, सीख, शिक्षा,
रीतियों, परम्पराओं और संस्कृतियों का
होता है निहित एक सार —
जो थोड़ा बँधता हूँ
मैं अपनी पोटली में,
और कुछ संजो लेते हैं वे
अपनी कुटिया में।

मेरा घूमना, घूमना नहीं है;
मेरा घूमना —
भारत की आत्मा को आत्मसात करना है,
वह आत्मा,
जो गांधी जी के अनुसार
"बसती है गाँवों में।"

26.7.25

स्मृति की नैतिकता

धीरे-धीरे व्यक्ति भूलने लगता है,
अपकार भी, उपकार भी।

अपकार भूलता है,
तो कृतज्ञता वश,
लगता है देने सम्मान उसी को,
जिसने किया होता है,
कभी घोर तिरस्कार
और अपमान भी कभी।
और जब भूलता है,
उपकार किसी का,
तो होता है कृतघ्न इस प्रकार
कि नहीं हिचकता करने में
तिरस्कृत, उपेक्षित या अपमानित उसे भी,
जो उसकी डूबती नौका का,
रहा था सहारा भी कभी।

अपकार भूल जाना,
एक श्रेष्ठ गुण भी है।
इससे व्यक्ति के महान बनने के,
खुलते हैं मनः एवं व्यक्तित्व द्वार,
परन्तु उपकार भूलना...?

उपकार करना
जितना ही है श्रेष्ठतम कार्य,
उसे भूलना
नीचता की पराकाष्ठा है।
यह कृत्य,
व्यक्ति के व्यक्तित्व को न मात्र
नाराधमता की ओर
खींच ले जाता है,
बल्कि उसके अधमपन को
सर्वत्र प्रदर्शित भी कर देता है|

अतः अपकार भूल,
यदि उपकार न भी कर सकें,
तो न करें कोई खेद मन में,
परन्तु उपकार भूलकर,
अपकार न करें किसी का,
प्रयास करें यहाँ तक
कि शत्रु का भी पीठ पीछे अहित न हो।

20.7.25

ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ...?

ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?
कैसे तोहें निज पीर सुनाऊँ?
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

नैहर में थी मैं प्यारी चिरैया
सासुर में मोहे बँधी हथकड़िया
कैसे तोहें अपना दर्द दिखाऊँ?
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

मायरि की मैं प्राण पियारी
बाबुल की तो रानी सुकुमारी
सासुर का कहते मैं शरमाऊँ
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

ना रुचि भोजन ना रुचि जीवन
ना रुचि बोलन ना रुचि पहिरन
दूसर रुचि मैं समय बिताऊँ
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

गुणी भले हूँ पर नहीं कोई गिनती
निज अधिकार भी पाऊँ करि विनती
भले हूँ सबल पर अबल कहाऊँ
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

सुन्दर मुख पर रहूँ कर पर्दा
शक्ति समस्त लिये फिरें मर्दा
बोलन पर निज जान गवाऊँ
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

कभी बोलें सास कभी रे ननदिया
जिठानी लड़ें जैसे लड़े रे कंजरिया
छोटका देवर को मैं कैसे समझाऊँ?
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?

गाँव समाज बना जैसे पिंजरा
नजर गड़ाए डरत मोर जियरा
कैसे के मैं निज लाज बचाऊँ?
ए री सखी तोहें का मैं बताऊँ?





7.7.25

प्यार का खारापन

उसने कहा,
"बहुत अरसा बीत गया,
तुमसे बात नहीं हुई|
न मोहब्बत की हमने,
न गिले हुए,
न शिकवे किये|
ऐसा लगता है,
जैसे जी नहीं रहे हैं,
बस जी रहे हैं|"

मैंने कहा,
"मैं तुम्हें याद हूँ,
तुम मेरे दिल में हो|
मैं जी रहा हूँ तन्हा,
तुम अपनी महफ़िल में हो,
मैं बतिया लेता हूँ तन्हाई से,
और तुम आँसुओं से|
न तुम मुझसे जुदा हुई,
न मैं हुआ दूर तुमसे;
बस कुछ रस्में हैं
जिनकी बेड़ियों में
तुम बंधी हो,
और मैं भी जकड़ दिया गया हूँ|

तुम अपने अश्क़ों का भेजो ख़त मुझे,
और मैं भी भेजता हूँ पैग़ाम तुम्हें
अपनी बेबसी का|
दोनों इसी में खो जाएँ,
जैसे भी जी रहे हैं
चलो,
सारा खारापन पी जाएँ
|"

2.7.25

तुम स्त्री हो-हुँकार दो

तुम स्त्री हो,
चाहे कवयित्री हो, अभिनेत्री हो,
नृत्यांगना हो, वीरांगना हो,
सिद्ध हो, प्रसिद्ध हो,
अनाम हो, या सनाम हो,
परन्तु स्त्री ही;
तुम्हारा नाम है|

तुम हो शैशव काल में,
तरुणाई की चाल में,
यौवन तुम्हारे भाल में,
या पूर्ण वार्धक्य हो खाल में,
किन्तु लैंगिक रूप से;
स्त्री ही हो तुम त्रिकाल में|

चाहे तुम सृजित हो, तुम पूजित हो,
तुम सेवि हो, तुम देवि हो,
तुम माता हो, जगदाता हो,
तुम मित्र हो, या पवित्र हो,
परन्तु स्त्रीत्व ही;
तुम्हारा चरित्र है|

मन में तुम्हारे ममता है,
हृदय में कोमलता है,
सबके प्रति समता है,
वंश, ध्वंस की क्षमता है,
परन्तु स्त्रीत्व ही;
तुममें रमता है|

चाहे तुम सबला हो, तुम चपला हो,
तुम दिव्य हो, तुम भव्य हो,
तुम क्षेम हो, तुम प्रेम हो,
या तपस्विनी हो, या ओजस्विनी हो,
परन्तु स्त्रीत्व ही;
तुम्हारी दैनन्दिनी है|

तुम भक्ति हो, तुम शक्ति हो,
तुम श्रेय हो, तुम ज्ञेय हो,
तुम मान हो, सम्मान हो,
तुम गीत हो, तुम जीत हो,
परन्तु स्त्रीत्व ही:
तुम्हारी रीत है|

तुम स्त्री हो,
तुम्हारे स्त्री होने को,
और अपने आप से
निम्न होने, अल्प होने जैसे
विषाक्त भावों का आभास
करते व कराते हैं, वे,
जिन्होंने नाद में डूबकर बदल ली है
रंग अपनी चमड़ी की,
जो स्वयं बहिर्रूप से,
प्रदर्शित होते हैं शुभचिन्तक तुम्हारे,
परन्तु खाल के भीतर
इनकी धमनियों में बहता है,
कलुषित रक्त
प्रति तुम्हारी देह, तुम्हारी सुन्दरता,
तुम्हारे भावों-विचारों की अभिव्यक्ति के|
इन शृगालों की दृष्टि में
तुम होती हो एक मृगा मात्र,
जिसे ये जम्बुक देखते हैं अपनी
कुटिल व तीक्ष्ण दृष्टि सहित-
लोलुप जीह्वा से,
और
चुभा देना चाहते हैं,
समस्त दन्तपंक्तियाँ तुम्हारी देह में,
चबा जाना चाहते हैं,
तुम्हारा तन, मन, अस्तित्व, कृतित्व, सतीत्व, मान-मर्यादा सहित-
समस्त प्रतिष्ठा तुम्हारी|

परन्तु सुनों,
तुम स्त्री हो,
और तुम्हारा स्त्री होना ही द्योतक है
कि तुम हो क्षमतावान, शक्तिमान हो सामर्थ्यवान हो|
अपनी मुष्टि-प्रहार से
दन्तहीन कर डालो,
उन समस्त अरण्यश्वानों को,
रज-धूल से दृष्टिहीन कर दो,
वकभक्तों को|
जिह्वा निकाल
बना लो प्रत्यंचा समस्त गिरदानों की,
और सिंघणी सम हुँकार से
कर दो रहस्योद्घाटन
रंगे सियारों का|
कर दो घोषणा समस्त ब्रह्माण्ड में
कि तुम स्त्री हो,
और
अनिच्छा से नहीं कर सकता स्पर्श कोई भी तुम्हें,
चाहे हो वह दानव, मानव या साक्षत देव ही,
और यदि किसी ने की धृष्टता
तो दुर्योधन की जंघा
अब भीम नहीं,
तुम स्वयं तोड़ोगी|

10.6.25

प्रेम-एक मानवीय अनुभव

 

प्रेम करना,
होना
या प्रेम में पड़ जाना,
नहीं है अनुचित या आपराधिक कृत्य
किसी भी दृष्टीकोण से|
यह सजह और स्वभाविक प्रक्रिया,
हो सकती है किसी को भी,
किसी से भी, कभी भी|

प्रेम है एक जटिल भावना,
जिसमें होती हैं सम्मिलित विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाएँ-
आकर्षण, लगाव और वासना,
साथ ही समावेश होता है इच्छा रूपी अभिलाषा,
एवं भावना व चेतना रूपी सम्वेदनाओं का|

प्रेम है,
एक मानवीय अनुभव,
जो व्यक्ति को व्यक्ति से जुड़ने में होता है सहायक,
और भरता है
आनन्द, प्रसन्नता व सन्तुष्टि का भाव|

जब किसी को देख, सुन कर भी
मन हो जाता है आल्हादित,
और नहीं जागती अन्य इच्छा कोई-
ऐसा प्रेम सन्तुष्टि-मार्ग का प्रेम होता है|
वह प्रेम,
पवित्र, निष्पाप, निःस्वार्थ, निष्काम और
निर्मल प्रेम होता है|
परन्तु,
जब येन, केन, प्रकारेण
प्रेमी को अपना लेने की इच्छा हो जाती है प्रबल,
साम, दाम, दण्ड, भेद होने लगता है प्रयोग-
यह तृषाग्नि धर लेती है रूप वासना का,
और नष्ट कर डालती हैं,
प्रेम की समस्त सम्भावनाओं का|

प्रेमी को प्राप्त करने की,
जैसे ही प्रज्ज्वलित है उत्कट भावना,
प्रेम वहीं हो जाता है धराशायी,
और पापमय वृत्ति,
दुरीच्छा लिए अपनी निरंकुशता के साथ  
जमा लेती है शासन अपना|

वासना,
रति, काम, भोग की लिप्सा लिए,
छल-छद्म, और कपट को शस्त्र बना,
क्रुद्ध भावों के साथ,
चल पड़ती है अपराधों की दिशा में,
और कर डालती है,
जघन्यतम दुष्कृत्य|

किसी को
पाने की इच्छा रखना,
नहीं है किसी भी प्रकार से दोषमय,
परन्तु उसके लिए दुर्योधनीय कृत्य
मानवीयता का उल्लंघन,
व अपराधों की चरम सीमा को प्राप्त कर जाना है|

अविवाहित वयस्कजनों!
यह विशेष सम्बोधन आपको है-

निःसन्देह आप पड़ सकते हैं प्रेम में किसी के भी,
और पाल सकते हैं स्वप्न आजीवन सह-गमन का,
आप वह कीजिए,
क्योंकि वह है आपका अधिकार|
जब आपके माता-पिता या अभिभावक जन,
किसी और से बाँध रहे हों बन्धन आपका,
आपकी अनिच्छा से,
तब आप कीजिए विरोध उनका सम्पूर्ण शक्ति से,
अड़ जाइये, हठ कर लीजिए,
मत कीजिए विवाह उनसे,
जिनसे आपकी नहीं है चाहत तनिक भी,
इसे आप अपना कर्तव्य भी मान सकते हैं|
यदि नहीं हो रहा सम्भव आपसे,
तो लीजिए सहयोग
सम्वैधानिक व प्रशासनिक शक्तियों का,
परन्तु विवाहोपरान्त,
अपने जीवन-संगी को,
मारिये मत, सताइए मत,
मत कीजिए प्रताड़ित उन्हें,
जो अब आपके सुख-दुःख के हो चुके हैं साथी
अन्तिम श्वास तक|
यदि नहीं हो रहा सम्भव सहचर,
तो निःसंकोच हो जाइये विलग एक-दूसरे से,
विवाहोपरान्त भी,
परन्तु  किसी अन्य की लिप्सा में,
अपने पति या पत्नी की हत्या तो मत कीजिए|
अपने परिजनों के कृत्य का दण्ड,
उन्हें क्यों देना,
जो आपसे पूर्व आपको जानते तक नहीं थे?
यह हत्या कोई दोष नहीं,
अक्षम्य अपराध है|

अभिभावक जन,
यह सम्बोधन अतिविशिष्ट है आपसे,
कि यदि आपकी सन्तान का
लगा है मन कहीं,
किसी और में,
वह है किसी से प्रेम में,
जो है आपकी इच्छा के विपरीत,
तो अपनी जाति, धर्म, वैभव, ऐश्वर्य,
के रूप में विद्यमान,
प्रतिष्ठा, परम्परा और अनुशासन की बलि
मत चढ़ाइए अपने बच्चों को|
आप मनाइये अपने मन को,
समझाइये स्वयं को,
और यदि नहीं मान रहे
आपके मन, आपकी आत्मा,
तो भय खाइये अपने ईश्वर से,
राष्ट्र के सम्विधान से,
कि किसी के जीवन का निर्णय लेना,
है बाहर आपके अधिकार क्षेत्र से|
आप स्वयं सोचिये,
जिन बच्चों को पाला है आपने,
अपना रक्त सींचकर,
क्या उनका बहता हुआ रक्त,
आपको सोने देगा सुख भरी नींद कभी? 

प्रेमियों,
आप हैं चाहे तरुण, कैशोर्य, युवा, प्रौढ़ा या जरावस्था में,
आपको प्रेम हो ही सकता है,
वह सम या विपरीत लैंगिक आकर्षण से,
पूर्वजों की सम्पत्ति से,
अपनी क्रय की हुई किसी वस्तु से
या इस जगत में अवस्थित किसी भी
ठोस, द्रव, वायु रूपी द्रब्य पदार्थ से|
परन्तु उसकी प्राप्यता हेतु
आप न करें,
घृणित कर्म कोई|
अपने प्रेम को कृष्णमय बनाएँ,
जिसमें मात्र-और-मात्र प्रेम ही हो सुवासित|

इस सुन्दर सृष्टि को बनाइए
योग्य जीवन के,
इसे प्रेम से अभिसिंचित कर,
स्वर्णिम व स्वर्गमय बनाइये,
इसमें अपराधों का विष घोलकर,
इसे नारकीय रूप देने से बचें,
कि मानव होने के नाते
यही है कर्तव्य हम सभी का|

1.5.25

मैं श्रमिक हूँ


मैं श्रमिक हूँ
,
श्रम ही मेरा आलम्बन है।

मेरी नींद, मेरी भूख,
मेरी श्वास, मेरा रक्त
सब हैं
मेरे श्रम के भक्त।

मैं श्रमिक हूँ,
श्रम ही मेरा आधार है।
मेरा फावड़ा, मेरा लैपटॉप,
मेरी यात्रा, मेरी कुदाल,
सब हैं
मेरे मस्तक-भाल।

मैं श्रमिक हूँ,
श्रम ही मेरा अभिमान है।
मेरे भाव, मेरी सोच,
मेरी दृष्टि, मेरा रंग
सब हैं
मेरे जीवन-रंग।

मैं श्रमिक हूँ,
श्रम ही मेरा अधिकार है।
मेरा भूत, मेरा भविष्य
मेरा वर्तमान, मेरा काल
सब हैं
मेरे जीवन-जाल।

मैं श्रमिक हूँ
और बिना श्रम
मुझे न रोटी मिले,
न मिले सुख-चैन। 

2.3.25

छँटनी की मार, निरुद्यम-बेरोजगार

कल तक हम निश्चिन्त थे,
है जीवन में आराम;
आज हमारे के हाथ से,
छिन चुका है काम।

प्रसन्नता की बलि चढ़ी,
लगा बड़ा आघात;
विपन्नता के दिन बढ़े,
मन में बढ़ा अवसाद।
पूर्णिमा की रात में,
दिखे अमावस शाम;
आज हमारे के हाथ से,
छिन चुका है काम।

अधिकोष* का ब्याज है,
उधार हाट का बाकी;
मित्रों से भी ऋण लिए,
चुकाऊँ कैसे वा की?
हाथ पसारे दिन ढले,
आँसू ढलती शाम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

रोटी की चिन्ता हुई,
भाड़ा घर का देना है;
शुल्क बच्चों का भरना है,
दवा माँ-बाप की लेना है।
एक-एक पाई के लिए,
तरसूँ आठों याम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

पत्नी की इच्छा मरी,
हुई बहुत उदास;
पति भी बिन मारे मरा,
कोई न फटके पास।
कल तक जो घनिष्ठ थे,
लगे अपरिचित नाम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

आँखों से आँसू झरते,
हृदय चाप बढ़ने लगा;
दर्प-भाव अब चूर हुआ,
चिन्ताग्नि में जलने लगा।
कौन-से पूजूँ इष्ट को?
जाऊँ अब किस धाम?
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

कार्यालय-से-कार्यालय दौडूँ,
व्यक्तिवृत्त** लिए हाथ;
जूता टूटा, चप्पल टूटी,
मिला न फिर भी साथ।
चपरासी भी आज तो
लगता बड़ा-सा नाम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

*बैंक
**
बॉयोडाटा