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24.11.25

गायें अब नहीं लौटतीं...

अब गायें साँझ को नहीं लौटतीं,
न ही उड़ाती हैं धूल
गोधूलि बेला में।

अब सड़कों पर
नहीं दिखते गिल्ली- डण्डे
या गड्ढा-गेंद,
खेलते बच्चे
गायों के वन-वापसी की प्रतीक्षा में।

बच्चे पूर्व दिशा में उग आई
स्वयं से भी बड़ी परछाईं
को दिखाने की अब नहीं लगाते होड़,
और सूरज उदास हो
छुप जाता है
क्षितिज की गोद में,
अपनी सिन्दूरी में
सफेदी का बिना मिश्रण लिए।

अब चरवाहे
नहीं माँगते परितोषिक
गाभिन गाय की सुरक्षा का,
न ही मनुहार करते हैं
वन में ब्यायी कबरी की
बछिया को,
सौंपते हुए गो-स्वामी के हाथ,
जिसे पाँच कोस से
अपनी गोद में लेकर आ रहा था वह।

अब चरवाहों के हाथ में भी
नहीं है छाता, कुल्हाड़ी और लाठी;
अब वे चाकरी की खोज में
भटक रहे हैं
नगर-नगर,
गाँव-गाँव,
मालिकों के द्वार।

वनों में घण्टियों के स्वर
अब विलुप्त हो चुके हैं,
जो होती थीं मार्गदर्शक
किसी भटके पथिक की।

वृक्ष,
जो देते थे
फूल-पत्ती और छाँव;
चट्टानें,
जिनमें मिलती थी
एक सूखी ठाँव;
नहरें,
जो बुझाती थीं प्यास,
देती थीं हरी-हरी घास—
और
मानव द्वारा
नृशंस हत्या किये जा रहे वनों की आँखें
तरस रही हैं
अन्तिम गो-दर्शन को।

घरों से
खोते जा रहे हैं नाद और चरी;
बाड़े तो जैसे अब लुप्त ही हो चुके हैं,
जहाँ रात भर
छाँव में गो-समाज करता था विश्राम
जुगाली के साथ।

खेतों में
ट्रैक्टरों का हो चुका है आधिपत्य,
और बैलों को कर दिया गया है मुक्त
उनके दायित्वों से।
कंक्रीट के घरों को
अब नहीं पड़ती आवश्यकता
गोबर से लीपने की;
और उपलों–कण्डों
का विकल्प बन चुकी है
मीथेन।
दूध मिल जाता है
दुग्धशाला में,
या थैलियों में बन्द
दुकानों में।

इसीलिए
देसी गायों की उपयोगिता

पर खड़े हो चुके हैं
प्रश्नचिह्न कई—
क्योंकि वे होती हैं
कम दुधारू,
और संकरित गायों में
दुधैलता अधिक।
और मनुष्य को
सबकुछ अधिक ही चाहिए;
वह घाटे का सौदा नहीं करता,
क्योंकि जाति–धर्म से
चाहे वह कुछ भी हो,
पर विचार से
व्यापारी ही होता है।

अब तो
लाचार हैं गायें
अपनी उघड़ी–कँपकँपाती देह पर ही
सहन करने को
भीषण मुसलाधार बारिश,
हाड़ सिकोड़ देने वाली ठण्ड,
और
अग्निशिखाओं-युक्त ताप-लहर भी।

असल में, गायें
कहीं जातीं ही नहीं।
लौटने के लिए जाना आवश्यक होता है,
और उससे भी अधिक आवश्यक होता है
एक ठौर का होना।

गाय कामधेनु है,
गाय माता है
,
परन्तु माता
अब निकेतन–हीन है।
मनुष्य की माँ के लिए हैं—
कम-से-कम वृद्धाश्रम बहुत;
परन्तु गो-माता
सड़कों पर
कुत्ते की मौत मर रही है।

गायें,
माता होकर भी
खोज रही हैं
अस्तित्व अपना
घर-घर, द्वार–द्वार;
परन्तु मिल रही है
पुचकार के स्थान पर,
मात्र दुत्कार।

और गो-भक्त
गाय के पूत
मात्र वाहनों में
ले जायी जाती गायों को ही मानते हैं माता,
और उसे छुड़ाने के लिए
रक्त–रंजित कर सकते हैं किसी को भी।
बाकी गायें
उनके लिए
पशु हैं, जानवर हैं—
जो कि ढोल, गँवार, शूद्र
और नारी की भाँति
ताड़ना की अधिकारी हैं।

ऊसर–बंजर खेतों ने
छोड़ दिया है घास उगाना भी;
किसानों की खेती में
लग गये हैं
विद्युत्-युक्त बाड़े।
तालाबों से
निचोड़ लिया जाता है
जल सारा;

अतः
माएँ हैं लाचार—
खाने को कूड़ा–करकट,
और पीने को
गड्ढे का दूषित जल।

एक दिन गायों को भी
घोषित कर दिया जाएगा
‘आवारा’;
भेज दिया जाएगा
आश्रय-केन्द्रों में।
बैलों की कर दी जाएगी
नसबन्दी,
और रोक दिया जाएगा
उत्पत्ति
इस अनोखे जीव की।

गायें,
जो कि माता हैं,
जो कि हो चुकी हैं
उपेक्षित और आवासहीन—
अब कहीं नहीं जाएँगी,
न तो कहीं से आएँगी;
वे बस अपना आहार
चरने के दण्ड–स्वरूप
मार खाएँगी।

सम्भवतः
यह युग माओं को
अपमानित, आश्रयहीन और निराश्रित, निर्वासित
करने वाला ही है।

18.11.25

मीठा-सम्बन्ध

जब अमरूद का फल पक जाता है, तो उसकी महक दूर-दूर तक उड़ती हुई मक्खियों को आकर्षित करती है। मक्खियाँ उस फल के पास आती हैं, उस पर बैठती हैं, और उसकी मिठास में इतनी रम जाती हैं कि वहीं अपना आवास बना लेती हैं। फिर उसी पर अण्डे देने लगती हैं। अण्डे लार्वा का रूप लेते हुए धीरे-धीरे कीड़ों में विकसित हो जाते हैं; फलतः फल दूषित हो जाता है तथा मनुष्य के खाने योग्य नहीं रह जाता।

जिस प्रकार अत्यन्त मीठे अमरूद के फल के भीतर कीड़े पड़ जाते हैं, उसी प्रकार अत्यन्त गहरे सम्बन्ध हो जाने के पश्चात उनमें कटुता आ जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। कारण यह है कि जब सम्बन्ध अत्यधिक प्रगाढ़ हो जाते हैं, तब व्यक्ति-व्यक्ति की प्रसिद्धि और लोकप्रियता की ख्याति चारों ओर फैलने लगती है। तभी समय रूपी मक्खी उन सम्बन्धों में ‘परस्पर आवश्यकता’ और ‘प्राथमिकता’ रूपी अण्डों को जन्म देती है। ये अण्डे आगे चलकर ‘अवकाश’, ‘आलोचना’, ‘अवहेलना’, ‘दूराव’ और ‘वैकल्पिकता’ जैसे लार्वा बनकर विकसित होने लगते हैं। धीरे-धीरे यही लार्वा ईर्ष्या, द्वेष और रुष्ठता के रूप में बड़े-बड़े कीड़ों का रूप धारण कर लेते हैं। तब सम्बन्ध दूषित हो जाते हैं और प्रगाढ़ता विच्छेद के रूप में परिणत हो जाती है।

सम्बन्धों की सम्वेदनशीलता को समझना अत्यन्त आवश्यक है। जैसे फल को पकने के बाद सड़ने से बचाने के लिए हम उसे समय रहते सुरक्षित स्थान पर रखते हैं, उसके आसपास स्वच्छता बनाए रखते हैं, और उस पर मक्खियों को बैठने नहीं देते—उसी प्रकार सम्बन्धों को भी सतर्कता, प्रयास और समझ की आवश्यकता होती है। यदि उनका ध्यान नहीं रखा जाए, तो उनमें अनावश्यक भ्रान्तियाँ घर कर लेती हैं, और एक छोटी-सी अनदेखी भी बड़े विवाद का कारण बन सकती है।

सम्बन्धों को सुरक्षित रखने के लिए सबसे पहले आवश्यक है—परस्पर सम्वाद। यदि दो लोगों के मध्य भावनाओं का आदान-प्रदान खुलकर होता रहे, तो कटुता को जन्म देने वाले छोटे-छोटे कीट स्वतः मर जाते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है—विश्वास। जैसे फल को सुरक्षित रखने के लिए उसे स्वच्छ स्थान में रखा जाता है, वैसे ही सम्बन्धों को भी विश्वास की स्वच्छता में रखा जाना चाहिए। जहाँ सन्देह और असुरक्षा का जमाव होने लगता है, वहाँ सम्बन्धों की मिठास भी धीरे-धीरे कड़वाहट में बदल जाती है।

इसके अतिरिक्त, सम्बन्धों में ‘अति स्वरूप लगाव’ भी कई बार समस्याओं को जन्म देता है। जब अपेक्षाएँ सीमाओं से अधिक बढ़ जाती हैं, तब छोटी-सी उपेक्षा भी मन को आहत कर देती है। इसलिए आवश्यक है कि सम्बन्धों में अपेक्षाओं का सन्तुलित होना चाहिए। यह समझना चाहिए कि हर व्यक्ति की अपनी व्यक्तिगत सीमाएँ और आवश्यकताएँ होती हैं। किसी पर भी अत्यधिक निर्भरता कभी-कभी सम्बन्धों को उसी प्रकार हानि पहुँचाती है, जैसे अधिक पकने पर फल शीघ्रता से सड़ने लग जाता है।

अन्ततः बात वही है—जिस प्रकार हम किसी फल को पक कर सड़ने से बचाते हैं, उससे कहीं अधिक यत्न हमें सम्बन्धों को टूटने से बचाने के लिए करना चाहिए। क्योंकि फल के सड़ जाने पर उसकी हानि केवल एक व्यक्ति तक सीमित रहती है, परन्तु सम्बन्धों के टूटने पर कई हृदयों को पीड़ा पहुँचती है। यदि हम सम्बन्धों की मिठास को बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें समय, धैर्य, समझ और सम्वेदनशीलता से उनकी रक्षा करनी होगी। तभी सम्बन्ध सुगन्धित, सुदृढ़ और स्थायी बने रह सकते हैं।

14.11.25

आह्वान-एक पुकार

मैं यहाँ पीरामल फ़ाउंडेशन
, शासन–प्रशासन या किसी भी संस्था का प्रतिनिधि बनकर नहीं आया हूँ। मैं आया हूँ इस देश का नागरिक के रूप में—उस मिट्टी का बेटा बनकर, जहाँ आज भी अनगिनत बच्चे गाय–भैंस–बकरी चराते हुए अपने बचपन को खो देते हैं; जहाँ छोटी-सी आयु में होटल, टेंट और दुकानों में काम करते हाथ शोषण और कुपोषण से काँपते दिखते हैं; जहाँ किशोरियाँ, महिलाएँ, युवा और युवतियाँ गरीबी, रक्ताल्पता, भेदभाव और अनदेखी के अँधेरों से रोज़ जूझती हैं।

मैं उनकी ही ओर से आया हूँ—उनकी पीड़ा, उनकी खामोशियों और उनके अनकहे सन्देश को लेकर। वे सिर्फ़ कह नहीं रहे—वे चीत्कार रहे हैं, बिलख रहे हैं, गिड़गिड़ा रहे हैं। सूखे हुए चेहरे और भूखी आँतें पुकार रही हैं—“आओ… देखो… सुनो हमें।” हम भारत के लोग—भूख, प्यास, गरीबी और असमानता की करवटों में तड़प रहे हैं। हम वही बच्चे हैं जो कल इस देश का भविष्य सँवारने वाले हैं, पर आज हमारा अपना भाग्य किसी अँधेरी खोह में दबा पड़ा है। जिस उम्र में हमारे हाथों में किताबें होनी चाहिए थीं, वहाँ गाय की घण्टी और भैंस की रस्सी पकड़ा दी गई है। जिस उम्र में हमारी अँगुलियाँ कलम थामकर काग़ज़ पर सपने उकेरतीं, उसी उम्र में वे चकला–बेलन घुमा रही हैं, या दूसरों के घरों में झाड़ू–पोछा कर रही हैं। जिस उम्र में हमें पौष्टिक भोजन मिलना चाहिए, उस उम्र में हम होटलों के जूठन बटोरकर पेट भरने को मजबूर हैं।“

इतना ही नहीं, शासन की तमाम योजनाएँ होने के बावजूद भी हम आज भी अज्ञानता के गहरे खोह में भटक रहे हैं। काग़ज़ों में पोषण की योजनाएँ चमकती हैं, पर हमारे गाँवों के सादे घरों में वे योजनाएँ कभी पहुँच ही नहीं पातीं। आँगनबाड़ी के केन्द्र हैं, पर कितनी ही माताएँ आज भी यह नहीं जानतीं कि उनके बच्चे को कब, क्या और कितना खाना चाहिए। जागरूकता की कमी ने हमारे आहार को इतना कमजोर कर दिया है कि हमारे शरीर पर मांस कम, हड्डियों की गिनती ज़्यादा दिखाई देती है। हमारे शरीर में उतना ही मांस है, जितने से कि हमारा सफ़ेद कंकाल दिखाई न पड़े। कई बच्चों के पेट फूले हुए और शरीर सूखे तीलियों जैसे—यह सिर्फ़ भूख नहीं, कुपोषण की चीख है।

गाँव की गलियों में घूमते छोटे-छोटे बच्चे जब अपनी पतली टाँगों पर लड़खड़ाते दिखते हैं, तब लगता है जैसे पूरा गाँव उनके साथ लड़खड़ा रहा हो। किशोरियों की स्थिति तो और भी भयावह है—रक्ताल्पता ने जैसे उनके जीवन का रंग ही चूस लिया हो। हर महीने आने वाली कमजोरी, चक्कर, थकान… पर वे बोलती नहीं, क्योंकि उन्हें लगता है—“कमजोरी तो लड़की होने का ही हिस्सा है।” अस्पताल हैं, स्वास्थ्य केन्द्र भी हैं, पर दूरी, अज्ञानता और झिझक दीवारें बनकर खड़ी हैं। प्रसव के समय आज भी कई घरों में दाई के भरोसे बच्चे जन्म लेते हैं, और कई बार—जच्चा भी चली जाती है, बच्चा भी। आँसुओं से भीगा परिवार उस कमरे के बाहर खड़ा रह जाता है, जहाँ बस कुछ देर पहले एक औरत जीवन देने की कोशिश कर रही थी। विद्यालय भी हैं, पर शिक्षा के प्रति जागरूकता नहीं। कक्षाओं में दीवारें हैं, कुर्सियाँ हैं, शिक्षक हैं—पर हम नहीं हैं। क्योंकि हमें लगता है कि खेत अधिक ज़रूरी हैं, घर का काम अधिक ज़रूरी है, पैसे अधिक ज़रूरी हैं। और इस सोच के कारण हमारे बच्चे आज भी “पहली कक्षा से जीवन की कठिन परीक्षा” में सीधे धकेल दिए जाते हैं। गाँवों की यह सच्चाई आँकड़ों में नहीं, इन थके चेहरों, इन सूखे पेटों, इन खाली विद्यालयों में दिखाई देती है। यह दर्द केवल आँकड़े नहीं—जीते–जागते लोग हैं, जिनका भविष्य हर दिन थोड़ा-थोड़ा टूट रहा है। और हमारे साथ ये जो भी हो रहा है, वह जानबूझकर नहीं हो रहा है, इसके पीछे अशिक्षा, अज्ञानता अजागरुकता बहुत बड़े कारण हैं।

मैं आज उन चीखों की आवाज़ बन कर आया हूँ, जो धूमिल हो चुके उन चेहरों के मौन चीखों का दर्पण है—जो हमारे गाँवों में, हमारे समाज में, हमारे ही बीच जीते हुए धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं। वे बहुत कुछ कह रहे हैं—इतना कि सुनने के लिए केवल हमारे कान पर्याप्त नहीं होंगे। हमें अपने मन, दिल, और मस्तिष्क—सबके द्वार खोलने होंगे। हमें अपनी इच्छा–शक्ति को जगाना होगा, अपने Logo के Ego से बाहर निकलना होगा, और अपनी सुविधाओं के खोल को त्याग कर उनकी जीवन-यात्रा में कदम रखना होगा। क्योंकि परिवर्तन दूर से खड़े होकर नहीं आता—परिवर्तन वहीं जन्म लेता है, जहाँ मनुष्य मनुष्य का हाथ थामता है। हमें उनके पास जाना होगा—उनके काँपते हाथ थामकर, उनकी आँखों में झाँककर, उनके हृदय की थरथराती आवाज़ सुनकर, उन्हें हिम्मत देते हुए यह कहना होगा—“हे भारत के लोग, हम भारत के लोग आपके अपने हैं… और आप हमारे। हम आपके बीच इसलिए आए हैं कि आपका दुःख समझ सकें, आपके संघर्ष को महसूस कर सकें, और आपके साथ मिलकर उन कष्टों का अन्त कर सकें। इस अभियान में हमारी नहीं—आपकी जीत छिपी है। क्या आप अपने भविष्य के लिए हमारा हाथ थामेंगे?” 

साथियों, अब मैं उन भारत के लोगों की ओर से—उन बच्चों, किशोरियों, माताओं, खेतों में झुकते श्रमिकों की ओर से— आपसे यह जानना चाहता हूँ—कि क्या आप तैयार हैं? इस देश का नागरिक होने के नाते, अपने के नागरिकों की आवाज़ सुनने, उनके साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर चलने, और ज़िला प्रशासन द्वारा चलाए जा रहे इस मानवता–अभियान का हिस्सा बनने के लिए तैयार हैं? “जब हम किसी एक जीवन को थामते हैं, हम पूरे समाज को उठाते हैं।” अब निर्णय हम सबके हाथ में है—क्या हम आगे बढ़ेंगे?

9.11.25

मेरी ज़िन्दगी का मजमून

मेरी ज़िन्दगी का जो उनवान है, मज़मून भी वही है,
जैसा दिखता है दिल मेरा — मेरा ख़ून भी वही है।

मैंने अपनी महबूबा में ही देखा है ख़ुदा अपना,
जो बनी मोहब्बत मेरी — मेरी ख़ातून भी वही है।

तलवारें उठती रहीं यहाँ मेरे इश्क़ के ख़िलाफ़,
जिसने तोड़ा घरबार मेरा — अफ़लातून भी वही है।

घोंपे गये ख़ंजर मेरी पीठ में — मरहम भी मिले हैं,
जिसने दिया ज़हर मुझे — मेरा ख़ैर-ओ-ख़ून भी वही है।

अपने चाँद को चाहा मैंने इक चाँद से ज़ियादा,
वही बनी है उल्फ़त मेरी — मेरा जुनून भी वही है।

हर दुआ में जिसका नाम आता है, बड़े ही अदब से,
मेरी तिश्नगी वही है — और मेरा सुकून भी वही है।

मोहब्बत में दोस्ती का करार सिर्फ़ वफ़ा का है,
इश्क़ में मिटने की रीत वही — क़ानून भी वही है।

किसे इल्ज़ाम दूँ अब इस तन्हाई की साज़िश का,
जिसने छोड़ा था राह में — उसका ममनून भी वही है।

7.10.25

हम जो कुकुरमुत्ते ही रहे…

हम आदि से अब तक,
कन्दमूल की भाँति,
गड़े पड़े थे मिट्टी के भीतर कहीं —
सघन वनांचलों,
पहाड़ों की अँधेरी गुफाओं,
नदियों के किनारे,
बिना इस भान के
कि हम वनवासी हैं,
या है हमारा अस्तित्व कुछ और भी।

हम प्रकृति
और वर्षा-जल पर आश्रित,
उसके ऋतुओं पर विश्वास के साथ,
मौसमी रहे आए।

कालान्तर में,
हम पर पड़ी दृष्टि कुछ भूखे सैलानियों की।
उन्होंने हमें खोद निकाला,
आलू-अरबी की तरह।
और दिखाई हमें ब्रोकली और गोभी
की सुन्दरता।
साथ ही किया प्रेरित,
प्राप्त करने को सौन्दर्य उतना ही।
दिखाया गया स्वप्न —
निखारने को रंग हमारा,
कि
स्याह-धूसर वर्ण
बन जाएगा श्वेत और चमकदार।

स्वभावानुसार, हम भी हुए मोहित,
और जीने की इच्छा हुई
बैंगन-भिण्डी की तरह।
जिस प्रकार नेनुआ-तोरई में
नहीं आने दिया जाता
 स्वाद कभी
कद्दू-लौकी का
,
उसी प्रकार, हम भी नहीं बन पाए —
परवल, शिमला मिर्च, सेम बीज या मटर कभी।

सैलानियों की दिखाई दुनिया को देखने,
शलजम, चुकन्दर की तरह
जैसे ही निकाला गर्दन थोड़ा-सा —
हम काट दिए गए मूली-गाजर की तरह,
और चीरे गए पालक-चौंराई बनाकर।
हम काटे और चीरे ही गए थे,
कि तभी ज़िन्दगी ने हमें कूट दिया,
सोंठ और अदरक की तरह।
फिर कई लोग आए,
सेवक और हमदर्द बनकर,
और हमारी ज़िन्दगी को
प्याज़ के छिलके की तरह उतारने लगे,
नीछने लगे लहसुन की कली बनाकर। 

हमारी ज़िन्दगी में भरी —
करेले की कड़वाहट,
और हरी मिर्च के तीखेपन से
आँसू झरने की तरह बह निकले।
और वे —
टमाटर, नींबू, में काला नमक मिलाकर,
लेने लगे चटखारे हमारे दर्द का,
और बेचने लगे,
मसाले मिलाकर
एवाकाडो के समाचार के रूप में|

तेज पत्ता की तरह तड़के में पड़ने वाले हम,
कड़ाही में ही जलते रहे,
पर कभी
धनिया पत्ती बन महक नहीं पाए।
तेल में सबसे पहले खौला देने के बाद भी,
अपने होने का
न ही किसी को एहसास करा पाए।

लोगों की बातों में आकर,
हम चले तो थे —
मशरूम बनकर,
अपनी छतरी को आसमान में फैलाने,
पर एक वर्ग आज भी है
जो हमें कुकुरमुत्ता ही कहता है,
खाना भी नहीं चाहता,
और कटहल में लगे काँटे की ही भाँति
हम उपेक्षित रहे आए| 

सदियाँ बीत गईं —
हमें खोदे हुए,
निकाले हुए,
धोए हुए।
पर आज तलक हमें
न तो गोभी की सुन्दरता मिली,
न ही ब्रोकली वाला भाव।

हम आज भी आदिवासी कन्दमूल की ही तरह
अपना भावहीन, अर्थहीन जीवन जी रहे हैं।
और वे —
सब्ज़ियों का व्यापार करके
करोड़पति बन चुके हैं। 

26.9.25

हे माधव!

जब श्याम मेघ भी सूखें हों,
और धरती हो ऊसर-बंजर,
जब पवन अग्नि की ज्वाला हो,
और वृक्ष दिखें निर्जर-जर्जर।

जब रात्रि गहन अँधेरी हो,
और जीवन आशा-हीन लगे,
जब मार्ग लगें भयकर सारे,
और वाणी भाषा-हीन लगे।

जब साथ न हो मैत्री कोई,
और एकल-जीवन वासी हो,
जब उल्लास पतित हो नेत्रों से,
और सर्वांग पूर्ण उदासी हो।

तब हाथ तुम्हारा आता है —
हे केशव! मेरे सखा, सुनो,
तब साथ तुम्हारा आता है —
हे माधव! तू ही दिखा, सुनो।

मातृ-पितृ का स्नेह मिला,
भ्राता-भगिनी से पूर्ण किया,
वसुधा-सम कुटुम्ब दिया,
जीवन-रस सम्पूर्ण दिया।

उजाड़, निर्जन उपवन में,
तुमने जो सुमन खिलाया है,
तन-मन से मैं तृप्त हुआ,
जीवन सम्पूर्ण ही पाया है।

कृष्ण दिया, कृष्णा दिया,
मधुवन को मधुमास दिया,
निर्मल-निश्छल हृदय दिया,
दिव्य शान्ति का वास दिया।

अब और न माँगूँ कुछ तुझसे —
ओ मोहन! मेरे मित्र, सुनो,
अनुसरण करूँ शरण तेरी,
और चित में तुम्हारा चित्र, सुनो।

25.9.25

यारियाँ

यारियाँ नहीं होतीं टूटने को
जो टूट जाएँ, यारियाँ नहीं होतीं|

मुश्किलों से उबरना है नहीं आसाँ  
जो उबर जाएँ, दुश्वारियाँ नहीं होतीं| 

बेकाम हैं जवानियाँ आजकल  
जो काम आ जाएँ, बेकारियाँ नहीं होती| 

बे-तआल्लुक़ है ज़िन्दगी उनकी
जो बे-तार्रुफ़ हो जाएँ, वफ़ादारियाँ नहीं होतीं|

ज़िन्दगी का सौदा ज़िन्दगी नहीं होती
जो ज़िन्दगी हो जाएँ, करोबारियाँ नहीं होतीं|


18.9.25

वेदना की सहचरी-स्त्री

चिकित्सक बोले –
“देवि, आवश्यक है आपको पूर्ण विश्रान्ति।
नितान्त शैय्या-विश्राम ही देगा त्राण
इस कटि-पीड़ा से!”

विनम्र निवेदन है, वैद्यवर –
क्या यह सम्भव है यथार्थ में?
कि एक स्त्री,
जो जी रही है मातृत्व का सतत जीवन,
जो है पत्नि किसी पुरुष की,
गृहिणी एक विस्तृत कुल की,
जहाँ वास करते हैं –
सास-श्वसुर,
ज्येष्ठ-जिठानी,
और घर के अन्य अंग।

जहाँ दिन नहीं होता विश्रान्त,
रात्रि नहीं होती रिक्त।
जहाँ अष्टयाम चलती है
कर्तव्यों की शृंखला।
जहाँ मेरी कर्मठता
ही आधार है-
परिवार के सन्तुलित धुरी की,
और मेरी थकान की भी,
कभी नहीं होती किसी को चिन्ता।

वैद्यराज!
कोई ऐसा उपचार बताइए,
जो कर सके इस वेदना का शमन,
पर न बाधित हो
मेरी गृह-कर्तव्यों की निरन्तरता।

दीजिए कोई औषधि –
जो दे सके क्षणिक शान्ति भी,
और दीर्घकालिक सामर्थ्य भी,
ताकि मेरा श्वसुराल रहे प्रसन्न,
और मैं न कहलाई जाऊँ –
"आलसी", "अकर्मण्य", या
"आजीवन व्याधिपीड़ित"।

जब स्त्री ने कही
अपनी पीड़ा की यह अन्तर्वेदना,
तो वैद्य ने कर लिया धारण मौन।
पुनः कुछ क्षण के,
दीर्घ श्वसित हो बोले –

“हे देवि,
यदि आप हैं इस समाज की स्त्री,
तो फिर यह पीड़ा
आपकी सहचरी ही कहलाएगी।
चाहे आप हों स्त्री किसी
कुलीन की,
या मलिन गृह-वासी हों।
आप हों
विस्तारित-परिवार में,
या जीती हों नितान्त
निजी, एकल जीवन। 

स्त्रियों के लिए यह संसार
वेदना-रहित नहीं है।
पीड़ा और स्त्री
सहोदरी न हों भले ही,
परन्तु सखियाँ अवश्य हैं –
जो जीवनभर साथ निभाती हैं,
और साथ छोड़ती हैं
मात्र उसी क्षण,
जब स्त्री मुक्त होती है
इस भव-सागर से।”