शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

18.11.25

मीठा-सम्बन्ध

जब अमरूद का फल पक जाता है, तो उसकी महक दूर-दूर तक उड़ती हुई मक्खियों को आकर्षित करती है। मक्खियाँ उस फल के पास आती हैं, उस पर बैठती हैं, और उसकी मिठास में इतनी रम जाती हैं कि वहीं अपना आवास बना लेती हैं। फिर उसी पर अण्डे देने लगती हैं। अण्डे लार्वा का रूप लेते हुए धीरे-धीरे कीड़ों में विकसित हो जाते हैं; फलतः फल दूषित हो जाता है तथा मनुष्य के खाने योग्य नहीं रह जाता।

जिस प्रकार अत्यन्त मीठे अमरूद के फल के भीतर कीड़े पड़ जाते हैं, उसी प्रकार अत्यन्त गहरे सम्बन्ध हो जाने के पश्चात उनमें कटुता आ जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। कारण यह है कि जब सम्बन्ध अत्यधिक प्रगाढ़ हो जाते हैं, तब व्यक्ति-व्यक्ति की प्रसिद्धि और लोकप्रियता की ख्याति चारों ओर फैलने लगती है। तभी समय रूपी मक्खी उन सम्बन्धों में ‘परस्पर आवश्यकता’ और ‘प्राथमिकता’ रूपी अण्डों को जन्म देती है। ये अण्डे आगे चलकर ‘अवकाश’, ‘आलोचना’, ‘अवहेलना’, ‘दूराव’ और ‘वैकल्पिकता’ जैसे लार्वा बनकर विकसित होने लगते हैं। धीरे-धीरे यही लार्वा ईर्ष्या, द्वेष और रुष्ठता के रूप में बड़े-बड़े कीड़ों का रूप धारण कर लेते हैं। तब सम्बन्ध दूषित हो जाते हैं और प्रगाढ़ता विच्छेद के रूप में परिणत हो जाती है।

सम्बन्धों की सम्वेदनशीलता को समझना अत्यन्त आवश्यक है। जैसे फल को पकने के बाद सड़ने से बचाने के लिए हम उसे समय रहते सुरक्षित स्थान पर रखते हैं, उसके आसपास स्वच्छता बनाए रखते हैं, और उस पर मक्खियों को बैठने नहीं देते—उसी प्रकार सम्बन्धों को भी सतर्कता, प्रयास और समझ की आवश्यकता होती है। यदि उनका ध्यान नहीं रखा जाए, तो उनमें अनावश्यक भ्रान्तियाँ घर कर लेती हैं, और एक छोटी-सी अनदेखी भी बड़े विवाद का कारण बन सकती है।

सम्बन्धों को सुरक्षित रखने के लिए सबसे पहले आवश्यक है—परस्पर सम्वाद। यदि दो लोगों के मध्य भावनाओं का आदान-प्रदान खुलकर होता रहे, तो कटुता को जन्म देने वाले छोटे-छोटे कीट स्वतः मर जाते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है—विश्वास। जैसे फल को सुरक्षित रखने के लिए उसे स्वच्छ स्थान में रखा जाता है, वैसे ही सम्बन्धों को भी विश्वास की स्वच्छता में रखा जाना चाहिए। जहाँ सन्देह और असुरक्षा का जमाव होने लगता है, वहाँ सम्बन्धों की मिठास भी धीरे-धीरे कड़वाहट में बदल जाती है।

इसके अतिरिक्त, सम्बन्धों में ‘अति स्वरूप लगाव’ भी कई बार समस्याओं को जन्म देता है। जब अपेक्षाएँ सीमाओं से अधिक बढ़ जाती हैं, तब छोटी-सी उपेक्षा भी मन को आहत कर देती है। इसलिए आवश्यक है कि सम्बन्धों में अपेक्षाओं का सन्तुलित होना चाहिए। यह समझना चाहिए कि हर व्यक्ति की अपनी व्यक्तिगत सीमाएँ और आवश्यकताएँ होती हैं। किसी पर भी अत्यधिक निर्भरता कभी-कभी सम्बन्धों को उसी प्रकार हानि पहुँचाती है, जैसे अधिक पकने पर फल शीघ्रता से सड़ने लग जाता है।

अन्ततः बात वही है—जिस प्रकार हम किसी फल को पक कर सड़ने से बचाते हैं, उससे कहीं अधिक यत्न हमें सम्बन्धों को टूटने से बचाने के लिए करना चाहिए। क्योंकि फल के सड़ जाने पर उसकी हानि केवल एक व्यक्ति तक सीमित रहती है, परन्तु सम्बन्धों के टूटने पर कई हृदयों को पीड़ा पहुँचती है। यदि हम सम्बन्धों की मिठास को बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें समय, धैर्य, समझ और सम्वेदनशीलता से उनकी रक्षा करनी होगी। तभी सम्बन्ध सुगन्धित, सुदृढ़ और स्थायी बने रह सकते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें