चित्र-साभार-गूगल |
एक मक्खी
जो बहुत देर से भिन-भिना रही है
उसके मुँह के आसपास
शायद चाहती है,
कुछ कहना,
कुछ पाना|
अधुली-उलझी हुई
बड़ी-बड़ी दाढ़ी-वन में
उग आई हैं शायद इल्लियाँ,
जो खेल रही हैं
खेल लुका-छिपी का
मक्खियों के साथ|
इल्लियों की खोज में,
घुस जाती है मक्खी,
कभी नासिका के खोह में,
तो कभी बैठ कर सुस्ताने लगती है,
जीभ रुपी चट्टान पर|
अपनी ही संतानों से दुत्कारा यह व्यक्ति,
सड़क के किनारे
पोते-पोतियों की जगह,
कटोरे को छाती से लगाए
इन मक्खियों के खेल का हो गया है आदी|
वह इन पर हाथ भी नहीं उठाता,
क्योंकि शायद उन्हें ही,
समझ अपनी तीसरी पुश्त,
जलहीन आँखों से निहारता रहता है
इस खेल को|
कभी आनन्दित तो कभी
भावनाओं के सागर में डूबकर
चिल्ला पड़ता है
बाबू साहब एक रुपया दे दो|
पोते-पोतियों की जगह,
जवाब देंहटाएंकटोरे को छाती से लगाए
इन मक्खियों के खेल का हो गया है आदी....बहुत संवेदनशील और यथार्थवादी...कविता
आभार आपका| आज हर शहर, गाँव, कस्बों के सड़कों के किनारे इस हृदय विदारक दृश्य देखने को मिल ही जाते हैं| यह वही पीड़ा है|
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