शब्द समर

विशेषाधिकार

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22.4.17

उनींदी रातें

नींद को परिन्दों के पर लग गए हैं,
न जाने कहाँ आसमानों में उड़ गई?
सुबह शिकारी दाना फेंकेगा,
और फाँस लेगा,
उसकी चंचलता को,
कुतर देगा सारे पंख,
कर देगा बन्द पिंजड़े में,
लगाकर हड्डियों की सलाखें।
शाम ढलते ही छोड़ देगा किसी चबूतरे पर।
दिन भर उड़ने की चाहत में फड़फड़ाते हुए,
रात अँधेरे,
आते ही बिस्तर पर,
उग आते हैं,
फिर से उसके पंख,
और अपने लोथड़े को छोड़,
पुनः उड़ जाती है वह,
कभी ज़िन्दगी के प्यार में,
कभी बाग़ों की बहार में,
कभी सपनों की क्यारियों में,
कभी अपनों की फुलवारियों में,
कभी सुकून की तलाश में,
कभी बेख़बरी की आस में
कभी समन्दर की लहरों में,
कभी चमकदार शहरों में,
कभी बादलों के झुण्ड में,
कभी बुलबुलाते कुण्ड में
और सफेद लकड़ियों पर,
गेहुआँ परतों वाला यह ढाँचा,
तड़पता रह जाता है,
उसके इंतज़ार में सारी रात।

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