शब्द समर

विशेषाधिकार

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18.4.17

ना-समझ समझदार

यह समाज,
यह वह समाज,
जो अनजान होते हुए भी ज्ञानवान,
ना-समझ होकर भी समझदार बन
करता रहता है हत्याएँ,
अपने सन्तानों के मन की,
उनके उमंगों की,
उनके सपनों की|

दुनिया भर के माँ-बाप भूल जाते है,
अपनी जवानी,
जब वे भी चाहते थे
लेना हिलोरें उत्ताल सागर-तरगों के बीच,
चाहते थे उड़कर पकड़ लेना,
जुगनू जैसे जगमगाते तारों को,
ले लेना चाहते थे आलिंगन में,
किसी स्वप्न-परी, या राजकुंअर को|

क्या ऐसा नहीं था?
बिलकुल था,
क्योंकि युवा मन की अल्हड़ता,
और उसकी चंचलता को
दौड़ने से रोकना क्या उनके वश में था?

तो क्या भूल जाते हैं?
नहीं,
बल्कि वे अपने
कुतर दिए गए पंखों,
कुचल दी गई भावनाओं,
और भोथरी कर दी गई जीभ के कारण,
ज़िन्दगी की चाशनी में डूबी
मिठाई का नहीं चख पाए स्वाद ही,
न ही जान पाए,
इसके भीतर के भाव-रस को|
इसीलिए
अपनी असफलता की कुंठा,
और व्यथा में संकृति, परम्परा
और रिवाज़ों की बेड़ियाँ डाल
प्रतिदिन करते रहे हैं चेष्टा
बनाने को बन्दी स्वतंत्रता को,
किन्तु
उड़ने वाले परिन्दों के लिए
कोई लुहार आज तक
एक भी पिंजड़ा बना पाया है क्या?   

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