हे भविष्य!
मेरा आर्तनाद, नहीं सुन सकते तुम,
मेरा आर्तनाद, नहीं सुन सकते तुम,
क्योंकि तुम हो मस्त,
मात्र अपने ही संसार में।
तुम हिंसक ध्वनियों में ढूँढते
हो सपने,
और मैं नीर-सुर में रहता हूँ लीन|
तुम तो जीना चाहते हो,
मात्र अपनी प्रसन्नता,
मात्र अपनी प्रसन्नता,
और मैं दे रहा हूँ भार,
जीने को पूरा-का-पूरा समाज|
तुम देखना चाहते हो मात्र,
पैरों के नीचे की भूमि,
और मैं दिखा रहा हूँ,
सूर्य से भी आगे का संसार,
बनाना चाहता हूँ त्रिकालदर्शी तुम्हें|
तुम चाहते हो भरते रहना कुलाचें,
भाँति किसी शावक के,
और मैं बना रहा हूँ
गम्भीर, किसी सिंह समान|
इसीलिए,
तुम समझकर भी,
नहीं समझना चाहते,
किसी के हृदय का घाव,
नहीं ले पाते टोह,
धमनियों से बाहर रिस रहे,
रक्त प्रवाह का|
रक्त प्रवाह का|
तुम करते जाते हो निरन्तर चोट,
जैसे करता है लुहार,
लोहे पर;
लोहे पर;
यह जानकार भी
कि होती है,
कितनी असहनीय पीड़ा,
कितनी असहनीय पीड़ा,
जब करता है प्रहार
कोई अपना,
किसी अपने पर|
किसी अपने पर|
गहन अभिव्यक्ति ....कितना कुछ अनकहा रहता जीवन में
जवाब देंहटाएंक्या बात है ! बेहद खूबसूरत रचना....
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