शब्द समर

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11.8.14

प्रणय निवेदन


एक प्रणय निवेदन तुमसे प्रिय,
अपने आँचल में ग्रहण करो|
निर्निमेष इन भावों को,
अपने हृद में विस्तरण करो|

कोकिल स्वर से मुखरित तुम,
कर्ण वनों में कूक रही|
लिए चषक मृगनयनों की
मनः पटल पर हुक रही|
प्रेम-पिपासु इस अन्तः को,
निज अधरों से संवरण करो|
निर्निमेष इन भावों को,
अपने हृद में विस्तरण करो|

अभिसार पथों का मैं मार्गी,
गन्तव्य तुम्हारा प्रेमांगन|
निर्बाध अग्रसर हूँ मग पर,
दृढ़ प्रतिज्ञ कर अंतः मन|
मेरी अविचल यात्रा का,
तुम एक भाग अनुसरण करो|
निर्निमेष इन भावों को,
अपने हृद में विस्तरण करो|

मैं नव अंकुर एक प्रेमी हूँ,
नहीं भान मुझे प्रेमालाप|
हूँ परे तुम्हारे नाजों से,
नहीं ज्ञान मुझे प्रेम-प्रताप|
मैं सर्वस्व समर्पित तुम पर,
तुम एक तो भाव संचरण करो|
निर्निमेष इन भावों को,
अपने हृद में विस्तरण करो|

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