शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

11.8.14

एक आरज़ू...

एक मुद्दत से
मेरे दिल की एक चाहत है
कि तुम और मैं,
समझ सकें एक-दूसरे को,
बाँट सकें दर्द,
कर सकें अठखेलियाँ
मेरी और तुम्हारी नज़रें
एक-दूसरे में खो कर|
मैं जानता हूँ तुम हो चुकी हो
मशरूफ़, अपनी ज़िंदगी में
जिसमें केवल तुम हो
तुम्हारी अपनी तन्हाईयाँ हैं,
अनचाही बातें हैं,
और है अकेले का दर्द
जिसे नहीं चाहती तुम करना बयाँ
किसी के सामने|
मुझे पता है
तुम वही बर्फ़ हो
जिसमें हमने बिताए हैं
कुछ यादगार पल
जिसे थोड़ा भी ताप मिलने पर
पिघल जाएगी
और बह निकलेगी
गंगा-सिन्धु की तरह|

उस ताप की आहट
मैंने कब का दे दिया
लेकिन तुम जानबूझ कर
कर रही हो बचाव,
यह जानते हुए भी
कि
तुम्हारे पानी बनने से लेकर
समुद्र में मिलने तक
तुम्हारा दूसरा किनारा बनकर
चलने को हूँ मैं तैयार|
मैं भी कूद चुका हूँ
उसी नदी में
जिसमें चल रही है
तुम्हारी नाव|
फ़र्क बस इतना है
कि
तुम धारा से अलग हो
मैं तरंगों में सराबोर
तुम्हारा दूसरा पतवार बन
साथ में खेना चाहता हूँ
तुम्हारी नाव को|
मेरी आँखे कब से
टिकी हुई हैं
घड़ी की सुइयों पर
और पूछ रही हैं
एक सवाल उससे
“क्या ऐसा कोई वक़्त नहीं है
किया तुमने मुकर्रर
जिसमें मैं
हिमालय की बर्फ़ को पिघलाकर
अपने खेतों में बहा सकूँ”?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें