शब्द समर

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24.2.14

मंज़िल के पुजारी

जितना गहरा हो सागर को झेलेंगे हम
जितनी ऊँची हो चोटी को पा लेंगे हम
हम जवाँ हैं जवानी की ये उम्र है
ज़िंदगानी को मस्ती से खेलेंगे हम

कौन कहता है कोई बड़ा काम है
अपनी मुट्ठी से किसका बड़ा दाम
एक क़ीमत जो हमने लगा दी कहीं
सारी दुनिया को उतने में ले लेंगे हम

एक वादा जो हमने किया जब कभी
वो इरादा न मुड़ता है पीछे कभी
लाख आएँ  त्रिलोकी के योद्धा मगर
पाँव अंगद का ज़मीं पर टिका देंगे हम

हम थिरकते है घुँघरू की झंकारों पर
होते मदहोश होठों के इशारों पर
पर अगर राह में कोई अंगार हो
पाने मंज़िल उसको भी बुझा देंगे हम|

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