शब्द समर

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20.9.12

अवर्णित तुम


तुम कहती हो लिखूं कुछ तुम पर।
किन्तु
हे कमले!
“बिहारी” की भांति नहीं है क्षमता
वर्णने को तुम्हारे मधुयुक्त अधरों को
जिन्हें देख भ्रमर ललचाता है प्रति क्षण
किन्तु विफल
मन मार कर लौट जाता है
बिन पराग पान के।

श्रद्धे!
”जयशंकर” की शब्दावली से विहीन हूं
जो
तुम्हारे श्याम रंगी
वट मूल की भांति लम्बे,
सतपूड़ा वन की तरह घनेरे केशों को
दे सकूं शब्दरूप ।

सखे!
”विद्यापति” जैसे नहीं हूं
विलक्षणी
जो तुम्हारे  कंचन कटि
को पहना सकूं
करधनी स्वर्णिम शब्दों से।

हे अनुपमेय!
मैं नहीं ”कालिदास” जो
कर सकूं वर्णित तुम्हारे
दर्पण जैसी परावर्ती नेत्रों को
जिसमें देखता हूं
मैं स्वतः को आठो याम।

चन्द्रे!
“पद्माकर”
की भांति नहीं हूं अलंकारी
जो तुम्हारे पूनमीय उज्जवलता को
कर सकूं अपादमस्तक
श्रृंगारित शब्दालंकारों से।

प्रिये!
मैं तुच्छ “विद्यार्थी”
धूसर-स्याह जीवन का आदी
सौंदर्य की देवी को नहीं कर सकता 
अलंकृत शब्द चातुर्यता से।

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