शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
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अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

29.4.12

तुम्हारी आँखें

नहीं मूंदो मत इन्हें.
मैं 
देखना चाहता हूँ,
कितनों की बुझती है प्यास इनसे?
कितनों की हैं जीवन ये? 
कितनों का ह्रदय स्पंदित होता है 
मात्र इनके चार होने पर?
कितने वीराने हो जाते हैं 
इनसे फासला पाने पर?
कितनों की सुबह होती है इनकी स्मृति के साथ  में
कितनों की मोती हैं ये घनघोर अँधेरी रात में?
कितनों के लिए चंचल हैं हिरणी सी
कितनों की मदिरालय
कितनों की विशालता गगन जैसी
कितनों की महकती उपवन ?
कितने डूब जाना चाहते हैं इस अथाह सागर में
और कितने समेट लेना चाहते हैं अपने कर के आंगन में?

हे अनुपमेय!
मुझे चाँद का चकोर बनकर 
ताकने दो अपने चंदकला को 
टकटकी लगाए 
दुनिया भर के सपने 
अपने में ही समाहित की हुई तुम्हारी
झील सी शबनमी 
आँखों को.

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