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11.7.11

अपेक्षाओं के बोझ तले बचपन


टिका है,
भविष्य देश का
मेरे कन्धों पर।
मैं हूँ आशा की किरण
अपने
माता-पिता, दादा-दादी, पास-पड़ोस, विद्यालय, शिक्षक, सहपाठियों,
और न जाने कितने मेरे जानने वालों की।
मुझसे ही हैं अपेक्षाएँ
उद्धार की।
मैं
बनूँगा-
डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, फ़ौजी,
अध्यापक, समाजसेवी, नेता।
मेरा नाम है-
राम, कृष्ण, ईसू, बुद्ध, पैग़म्बर, नानक,
सुभाष, गाँधी, भगत।
मैं
करूँगा स्थापित-
सभ्य, सुशील, भाई-चारे वाला, सत्य, अहिंसा,
विक्रमादित्य और राम-राज्य
नाश करूँगा
मैं ही-
पाप, अत्याचार, हिंसा, भ्रष्टाचार का।
मुझमें ही
दृश्य होने लगे हैं-
प्लेटो, अरस्तू, न्यूटन, भाभा, डार्विन,
आइन्स्टीन, पाइथागोरस।
मुझे ही
समझा जा रहा है-
प्रेमचन्द, तुलसीदास, शेक्सपियर, शोफोक्लीज़, मीरा,
चेख़व, मंटो, इस्मत, निराला, व्यास, बाल्मीक।
मैं
लाऊँगा बदलाव समाज में-
राजाराम मोहन राय, दयानन्द,
सरोजिनी, निवेदिता, विवेकानन्द-सा।
मैं-
बंगाली, मराठी, आसामी, उत्तरी, दक्षणी,
अमेरिकी फ़्रांसिसी हूँ।
मैं-
हिन्दू हूँ, मुसलमान हूँ, यहूदी हूँ, ब्राम्हण हूँ,
गोरा हूँ, काला हूँ, दलित हूँ।
मैं ही हूँ-
कार्ल मार्क्स, लेनिन, माउत्सतुंग भी.
नेपोलियन, सिकंदर, अशोक, चन्द्रगुप्त, अकबर,
लिंकन, विक्टोरिया  और लक्ष्मीबाई भी हूँ मैं ही।
मुझमें ही देखे जाते हैं-
फाल्के, रफ़ी, लता, अमिताभ
शाहरुख़, मधुबाला, शकीरा, कैट, ऐश्वर्या।
मैं हूँ खिलाड़ी-
ब्रैडमैन, रोनाल्डो, पोलो, तेंदुलकर, ध्यानचन्द,
विश्वनाथन, विलियम्सन, साइना, सानिया-सा।
मैं ही हूँ,
प्रखर पत्रकार-
भारतेन्दु, हिक्की, माखनलाल,
और 'विद्यार्थी' जैसा।
आह!मेरा तो टूटा जा रहा है कन्धा
इतने बोझ से।
मेरा कन्दुक जैसा मस्तिष्क
और
पूरा ब्रह्माण्ड समाहित किया जा रहा है मुझमें।
नहीं, ऐसा मत करो,
अन्यथा
मैं हो जाऊँगा-
पागल, चिड़चिड़ा, गुस्सैल, डरपोक
और भी कई मानसिक बीमारियों का शिकार।
मैं
अभी  नहीं पढ़ पाउँगा-
कुरान, बाइबिल, रामचरित मानस, गीता, ग्रन्थ साहिब।
न ही
पढ़ सकता
कलमा, नहीं कर सकता प्रेयर,
नहीं है क्षमता बजाने को शंख अभी।
मुझे तो अभी चाहिए-
नन्दन, चकमक, कॉमिक्स, डिज्नी,
बालहंस, कार्टून नेटवर्क और गिल्ली-डण्डा।

सुनों!
मैं खेलना चाहता हूँ-
कंचे, लुका-छिपी, चोर-सिपाही, बर्फ-पानी,
रचाना चाहता हूँ
शादी अपनी गुड़िया की
नचाना चाहता हूँ लट्टू,
उड़ाना चाहता हूँ पतंग।
मैं खेलना चाहता हूँ-
छम-छम करती बूँदों के साथ।
छिप जाना चाहता हूँ झाड़ियों में,
हो जाना चाहता हूँ ओझल,
माँ की नज़रों से।
चुपके से मिल जाना चाहता हूँ,
फिर अपने
चुल्ली, सिम्पू, प्रिंस, टंटू, मोनू,टिन्ना और सिंजा से।
मैं
खेल-ही-खेल में
बना देता हूँ
हवाई जहाज ओरविल-विलवर का,
जेम्सवाट की रेलगाड़ी, ग्राहमबेल का टेलीफोन।
बड़े-बड़े बाँध मैं धूल से ही बना देता हूँ
इंजिनियर की तरह।
रामानुजन के सवालों को चुटकियों में हल कर देता हूँ
जब पूछता है,
मेरा गोलू मुझसे।
पत्रकारों से भी अधिक प्रश्नों का भण्डार हूँ मैं,
अपने आप में।
मैं भी लगा लेता हूँ निशाना अर्जुन की तरह।
अपने खाने की वस्तु
स्वतः ही दे देता हूँ कर्ण और हरिश्चन्द्र-सा।
लेकिन
मेरे
हाथों पर डण्डे का प्रहार नहीं,
खिलौना चाहिए,
मेरे गालों पर तमाचा नहीं,
प्यार भरी पुचकार चाहिए,
मुझे डाँट नहीं, उत्साहवर्धन चाहिए।
मुझे पिंजरे का बन्धन नहीं,
पंछियों सा स्वच्छन्द आकाश चाहिए।
फिर देखना
मैं बढूँगा,
यूकेलिप्टस के पेड़-सा सीधा,
लहराऊँगा परचम अनन्त आसमान में,
तिरंगा जैसा।
मैं यही कहना चाहता हूँ
अभी
मत लादो बोझ अपनी महत्वकांक्षाओं का
मेरी उच्छृंखलताओं पर।
नहीं तो मै बिखर जाऊँगा सरसों के दाने-सा।
इसलिए
मत दफ़न करो आँख खोलने से पहले मेरे
बचपन
को।“

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