शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
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10.6.25

प्रेम-एक मानवीय अनुभव

 

प्रेम करना,
होना
या प्रेम में पड़ जाना,
नहीं है अनुचित या आपराधिक कृत्य
किसी भी दृष्टीकोण से|
यह सजह और स्वभाविक प्रक्रिया,
हो सकती है किसी को भी,
किसी से भी, कभी भी|

प्रेम है एक जटिल भावना,
जिसमें होती हैं सम्मिलित विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाएँ-
आकर्षण, लगाव और वासना,
साथ ही समावेश होता है इच्छा रूपी अभिलाषा,
एवं भावना व चेतना रूपी सम्वेदनाओं का|

प्रेम है,
एक मानवीय अनुभव,
जो व्यक्ति को व्यक्ति से जुड़ने में होता है सहायक,
और भरता है
आनन्द, प्रसन्नता व सन्तुष्टि का भाव|

जब किसी को देख, सुन कर भी
मन हो जाता है आल्हादित,
और नहीं जागती अन्य इच्छा कोई-
ऐसा प्रेम सन्तुष्टि-मार्ग का प्रेम होता है|
वह प्रेम,
पवित्र, निष्पाप, निःस्वार्थ, निष्काम और
निर्मल प्रेम होता है|
परन्तु,
जब येन, केन, प्रकारेण
प्रेमी को अपना लेने की इच्छा हो जाती है प्रबल,
साम, दाम, दण्ड, भेद होने लगता है प्रयोग-
यह तृषाग्नि धर लेती है रूप वासना का,
और नष्ट कर डालती हैं,
प्रेम की समस्त सम्भावनाओं का|

प्रेमी को प्राप्त करने की,
जैसे ही प्रज्ज्वलित है उत्कट भावना,
प्रेम वहीं हो जाता है धराशायी,
और पापमय वृत्ति,
दुरीच्छा लिए अपनी निरंकुशता के साथ  
जमा लेती है शासन अपना|

वासना,
रति, काम, भोग की लिप्सा लिए,
छल-छद्म, और कपट को शस्त्र बना,
क्रुद्ध भावों के साथ,
चल पड़ती है अपराधों की दिशा में,
और कर डालती है,
जघन्यतम दुष्कृत्य|

किसी को
पाने की इच्छा रखना,
नहीं है किसी भी प्रकार से दोषमय,
परन्तु उसके लिए दुर्योधनीय कृत्य
मानवीयता का उल्लंघन,
व अपराधों की चरम सीमा को प्राप्त कर जाना है|

अविवाहित वयस्कजनों!
यह विशेष सम्बोधन आपको है-

निःसन्देह आप पड़ सकते हैं प्रेम में किसी के भी,
और पाल सकते हैं स्वप्न आजीवन सह-गमन का,
आप वह कीजिए,
क्योंकि वह है आपका अधिकार|
जब आपके माता-पिता या अभिभावक जन,
किसी और से बाँध रहे हों बन्धन आपका,
आपकी अनिच्छा से,
तब आप कीजिए विरोध उनका सम्पूर्ण शक्ति से,
अड़ जाइये, हठ कर लीजिए,
मत कीजिए विवाह उनसे,
जिनसे आपकी नहीं है चाहत तनिक भी,
इसे आप अपना कर्तव्य भी मान सकते हैं|
यदि नहीं हो रहा सम्भव आपसे,
तो लीजिए सहयोग
सम्वैधानिक व प्रशासनिक शक्तियों का,
परन्तु विवाहोपरान्त,
अपने जीवन-संगी को,
मारिये मत, सताइए मत,
मत कीजिए प्रताड़ित उन्हें,
जो अब आपके सुख-दुःख के हो चुके हैं साथी
अन्तिम श्वास तक|
यदि नहीं हो रहा सम्भव सहचर,
तो निःसंकोच हो जाइये विलग एक-दूसरे से,
विवाहोपरान्त भी,
परन्तु  किसी अन्य की लिप्सा में,
अपने पति या पत्नी की हत्या तो मत कीजिए|
अपने परिजनों के कृत्य का दण्ड,
उन्हें क्यों देना,
जो आपसे पूर्व आपको जानते तक नहीं थे?
यह हत्या कोई दोष नहीं,
अक्षम्य अपराध है|

अभिभावक जन,
यह सम्बोधन अतिविशिष्ट है आपसे,
कि यदि आपकी सन्तान का
लगा है मन कहीं,
किसी और में,
वह है किसी से प्रेम में,
जो है आपकी इच्छा के विपरीत,
तो अपनी जाति, धर्म, वैभव, ऐश्वर्य,
के रूप में विद्यमान,
प्रतिष्ठा, परम्परा और अनुशासन की बलि
मत चढ़ाइए अपने बच्चों को|
आप मनाइये अपने मन को,
समझाइये स्वयं को,
और यदि नहीं मान रहे
आपके मन, आपकी आत्मा,
तो भय खाइये अपने ईश्वर से,
राष्ट्र के सम्विधान से,
कि किसी के जीवन का निर्णय लेना,
है बाहर आपके अधिकार क्षेत्र से|
आप स्वयं सोचिये,
जिन बच्चों को पाला है आपने,
अपना रक्त सींचकर,
क्या उनका बहता हुआ रक्त,
आपको सोने देगा सुख भरी नींद कभी? 

प्रेमियों,
आप हैं चाहे तरुण, कैशोर्य, युवा, प्रौढ़ा या जरावस्था में,
आपको प्रेम हो ही सकता है,
वह सम या विपरीत लैंगिक आकर्षण से,
पूर्वजों की सम्पत्ति से,
अपनी क्रय की हुई किसी वस्तु से
या इस जगत में अवस्थित किसी भी
ठोस, द्रव, वायु रूपी द्रब्य पदार्थ से|
परन्तु उसकी प्राप्यता हेतु
आप न करें,
घृणित कर्म कोई|
अपने प्रेम को कृष्णमय बनाएँ,
जिसमें मात्र-और-मात्र प्रेम ही हो सुवासित|

इस सुन्दर सृष्टि को बनाइए
योग्य जीवन के,
इसे प्रेम से अभिसिंचित कर,
स्वर्णिम व स्वर्गमय बनाइये,
इसमें अपराधों का विष घोलकर,
इसे नारकीय रूप देने से बचें,
कि मानव होने के नाते
यही है कर्तव्य हम सभी का|

1.5.25

मैं श्रमिक हूँ


मैं श्रमिक हूँ
,
श्रम ही मेरा आलम्बन है।

मेरी नींद, मेरी भूख,
मेरी श्वास, मेरा रक्त
सब हैं
मेरे श्रम के भक्त।

मैं श्रमिक हूँ,
श्रम ही मेरा आधार है।
मेरा फावड़ा, मेरा लैपटॉप,
मेरी यात्रा, मेरी कुदाल,
सब हैं
मेरे मस्तक-भाल।

मैं श्रमिक हूँ,
श्रम ही मेरा अभिमान है।
मेरे भाव, मेरी सोच,
मेरी दृष्टि, मेरा रंग
सब हैं
मेरे जीवन-रंग।

मैं श्रमिक हूँ,
श्रम ही मेरा अधिकार है।
मेरा भूत, मेरा भविष्य
मेरा वर्तमान, मेरा काल
सब हैं
मेरे जीवन-जाल।

मैं श्रमिक हूँ
और बिना श्रम
मुझे न रोटी मिले,
न मिले सुख-चैन। 

2.3.25

छँटनी की मार, निरुद्यम-बेरोजगार

कल तक हम निश्चिन्त थे,
है जीवन में आराम;
आज हमारे के हाथ से,
छिन चुका है काम।

प्रसन्नता की बलि चढ़ी,
लगा बड़ा आघात;
विपन्नता के दिन बढ़े,
मन में बढ़ा अवसाद।
पूर्णिमा की रात में,
दिखे अमावस शाम;
आज हमारे के हाथ से,
छिन चुका है काम।

अधिकोष* का ब्याज है,
उधार हाट का बाकी;
मित्रों से भी ऋण लिए,
चुकाऊँ कैसे वा की?
हाथ पसारे दिन ढले,
आँसू ढलती शाम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

रोटी की चिन्ता हुई,
भाड़ा घर का देना है;
शुल्क बच्चों का भरना है,
दवा माँ-बाप की लेना है।
एक-एक पाई के लिए,
तरसूँ आठों याम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

पत्नी की इच्छा मरी,
हुई बहुत उदास;
पति भी बिन मारे मरा,
कोई न फटके पास।
कल तक जो घनिष्ठ थे,
लगे अपरिचित नाम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

आँखों से आँसू झरते,
हृदय चाप बढ़ने लगा;
दर्प-भाव अब चूर हुआ,
चिन्ताग्नि में जलने लगा।
कौन-से पूजूँ इष्ट को?
जाऊँ अब किस धाम?
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

कार्यालय-से-कार्यालय दौडूँ,
व्यक्तिवृत्त** लिए हाथ;
जूता टूटा, चप्पल टूटी,
मिला न फिर भी साथ।
चपरासी भी आज तो
लगता बड़ा-सा नाम;
आज हमारे हाथ से,
छिन चुका है काम।

*बैंक
**
बॉयोडाटा

4.1.25

मेरी आवाज़ सुनो

मेरी आवाज़ सुनो,
सुनो, पीड़ा, व्यथा, कराह से भरा क्रन्दन मेरा।
सुनो, मेरी बिवाइयों, छालों, फफोलों से
बहते आँसुओं को।
सुनो, टूटे जबड़ों, बिखरी पसलियों, निकली अन्तड़ियों का रक्त प्रवाह मेरा।

कचरे गए आटे, तोड़े हुए चूल्हे, फेंक दी गईं रोटियों की भूख सुनो
लूटी गई बाल्टी, काटी हुई रसरी, रूँध दिए गए कुएँ की प्यास सुनों।
काटे हुए छज्जे, तोड़ी गई दीवार, खाली कराए गए आँगन की उजाड़ सुनो।

फाड़ी गई अँगिया को सुनो,
सुनो खरोंचे गए बदन को
और नोच दी गई इज़्ज़त की
चीत्कार सुनो।

सुनो विदीर्ण मस्तक की रेखाओं को,
भग्न कशेरुका की विपदाओं को सुनों
और सिर-से-पाँव तक लथपथ
निर्दय लाठी की मार को सुनो।

सुनो बिना मूल्यांकन की विफलता को,
युवावस्था की असफलता को सुनो
और सफलता हेतु उठाई हुई आवाज़ के लिए,
चेहरे पर किये गए
बूटों का प्रहार सुनो|

तुम सुनो
कि नहीं हो बहरे तुम,
देखो मुझे,
कि तुम्हारी आँखें भी हैं सही सलामत
करो कुछ
कि हाथ हैं बचे साबुत तुम्हारे
चलो साथ मेरे
कि जान है बची तुम्हारे पैरों में।

तुम विचारवान हो,
ज्ञानवान हो तुम,
तुम ही शक्तिशाली भी। 

मैं हाथ जोड़कर गला फाड़ कर
चीख-चीखकर रहा हूँ पुकार तुम्हें,
सुनो!
मेरी आवाज़ सुनो...

28.11.24

आँसू और झरना

आँसू भी होते हैं झरने जैसे,
जो मस्तिष्क की ऊँचाई से बहकर
कपोलों पर गिरकर बिखर जाते हैं। 

जैसे बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदें
पहाड़ का सीना फाड़,
बहने लगती हैं,
उसी प्रकार,
मन की अथाह व्यथा,
मानव हृदय को चीर,
धारा बन उमड़ पड़ती है,
और झरने लगती है नेत्रों के द्वार से
अविरल, निरन्तर, लगातार|

पर मौसम निश्चित नहीं होते आँसुओं के,
झरने की तरह|
होते ही दैहिक, दैविक, या भौतिक पीड़ा व्यक्ति को,
फूट पड़ते हैं,
आँखों के कोरों से,
किसी भी क्षण, दिन, महीने या ऋतुओं में

झरनों का बहना,
या
आँसुओं का झरना
धरती और मनुष्य की प्राकृतिक स्वाभाविक प्रक्रिया है,
जिसे धरती मार सकती है,
मानव रोक सकता है|
यदि मानव थामने का करता है,
यत्न बलपूर्वक,
वह स्वयं टूटकर छितरा जाता है
आजीवन अपने जीवन में|

10.10.24

इस युग का अप्रासंगिक

बहुधा कहते हैं लोग,
मुझसे आजकल,
ये तुम क्या लिखते हो हिन्दी के शब्द?
जिसमें रहता है,
तत्सम, तद्भव और साहित्यिकता की अधिकता?

ऐसे शब्द,
जो नहीं हैं किसी भी प्रकार से प्रचलन में,
सिवाय उपहास के|

वे शब्द,
जिनका स्वप्न में भी,
औपचारिक, अनौपचारिक-सम्वाद, गोष्ठी, सम्मेलनों में,
भाषण, लेख, काव्यपाठ, वार्तलाप या लेखन में ही
चूकवश भी नहीं करता प्रयोग कोई|

ऐसे शब्द,
जिसे शिक्षक भी नहीं चुनते हेतु व्याख्या के,
न ही विद्यार्थियों की है
अभिरुचि इसे जानने या पढ़ने में|

है कौन,
जो पढ़ेगा इन्हें?
समझेगा इन्हें?
गुनेगा इन्हें?
देगा प्रेम और सम्मान भी?
वह भी तब;
जबकि हमारे पास,
अंग्रेज़ी, उर्दू, अरबी, फ़ारसी सहित
कई अन्य भाषाओँ से मिश्रित,
‘मिश्र भाषा’,
सरल शब्दों में है,
सहजता से उपलब्ध...

तब मैं कहता हूँ उनसे,
निःसन्देह;
आज मेरी भाषा, मेरे शब्द हो रहे हैं
नगण्य, उपेक्षित, अपमानित भी,
किन्तु एक काल आएगा,
ऐसा भी
जब हिन्दी, इसके शब्द, इनकी प्रसंगिकता
हो रही होगी विलुप्त इस संसार से,
तब लोग खोजेंगे लेखनी मेरी,
और कहेंगे,
“उस युग में होता था,
उस युग का अप्रासंगिक कवि एक,
क्या तो बड़ा ही अच्छा-सा है नाम उसका,
हाँ ‘विद्यार्थी’ जितेन्द्र देव पाण्डेय ‘विद्यार्थी’”
खोजो पुस्तकें उसकी,
मिलेंगे तुम्हें हिन्दी के वे भी शब्द,
जो वर्तमान में नहीं मिलेंगे
शब्दकोशों में भी|

मैं डायनासोर और आदिम मानव की भाँति
जीवाश्म बन हो जाऊँगा बहुमूल्य तब,
खोजेंगे लोग संग्राहलयों में मुझे,
क्योंकि जीवित की शून्य,
तथा मृतक और विलुप्तप्रायों की महिमा
गगन से भी विशाल,
हिरण्य से भी मूल्यवान हो जाती है|

मैं, मेरी भाषा, मेरे शब्द, मेरी पुस्तकें,
मरणोपरान्त अपने से अधिक,
प्राप्त करेंगे मूल्य अपना|

16.7.24

नागराज

हे नागराज!
तुम डसो ही मत।
मत न धँसाओ गरल युक्त दन्त,
किसी की देह में,
न करो विष-वमन ही,
अरि-शोणित में।

मैं कहता हूँ-
करो आचरण विपरीत अपने व्यवहार के;
सरक जाओ चुपके से तब भी,
यदि पाओ आहट घोर संकट की आसपास अपने।
तुम जियो स्वयं,
और जीने दो औरों को,
बिना कोई हानि पहुँचाए।

किन्तु,
सावधान!
जब तुम्हारी शान्ति का
उठाने लगे अनुचित लाभ कोई,
देने लगे त्रास तुम्हें।

 तब,
अपने त्राण के लिए;
उठा लो सहस्र फण,
वासुकीनाथ की भाँति मारो फुफकार,
डस लो तक्षक की भाँति से फूलों से निकल कर,
चुभा दो समस्त दन्तपंक्तियाँ एक साथ,
और पलट जाओ वहीं पर,
उछर दो कालकूट शत्रु की रक्त-शिराओं में।

मैं तो कहता हूँ,
बाँध कर उन्हें अपनी कुण्डली में,
पीस डालो सम्पूर्ण कशेरुका,  
और लील जाओ उनकी सम्पूर्ण देह को ही,
धारण कर विकट रूप अजगर का।

कृष्ण कहता है,
“बात पहले शान्ति की हो,
और यदि बात न बने,
तो महाभारत रूपी क्रान्ति आवश्यक है।"