मुझसे आजकल,
ये तुम क्या लिखते हो हिन्दी के शब्द?
जिसमें रहता है,
तत्सम, तद्भव और साहित्यिकता की अधिकता?
ऐसे शब्द,
जो नहीं हैं किसी भी प्रकार से प्रचलन में,
सिवाय उपहास के|
वे शब्द,
जिनका स्वप्न में भी,
औपचारिक, अनौपचारिक-सम्वाद, गोष्ठी, सम्मेलनों में,
भाषण, लेख, काव्यपाठ, वार्तलाप या लेखन में ही
चूकवश भी नहीं करता प्रयोग कोई|
ऐसे शब्द,
जिसे शिक्षक भी नहीं चुनते हेतु व्याख्या के,
न ही विद्यार्थियों की है
अभिरुचि इसे जानने या पढ़ने में|
है कौन,
जो पढ़ेगा इन्हें?
समझेगा इन्हें?
गुनेगा इन्हें?
देगा प्रेम और सम्मान भी?
वह भी तब;
जबकि हमारे पास,
अंग्रेज़ी, उर्दू, अरबी, फ़ारसी सहित
कई अन्य भाषाओँ से मिश्रित,
‘मिश्र भाषा’,
सरल शब्दों में है,
सहजता से उपलब्ध...
तब मैं कहता हूँ उनसे,
निःसन्देह;
आज मेरी भाषा, मेरे शब्द हो रहे हैं
नगण्य, उपेक्षित, अपमानित भी,
किन्तु एक काल आएगा,
ऐसा भी
जब हिन्दी, इसके शब्द, इनकी प्रसंगिकता
हो रही होगी विलुप्त इस संसार से,
तब लोग खोजेंगे लेखनी मेरी,
और कहेंगे,
“उस युग में होता था,
उस युग का अप्रासंगिक कवि एक,
क्या तो बड़ा ही अच्छा-सा है नाम उसका,
हाँ ‘विद्यार्थी’ जितेन्द्र देव पाण्डेय ‘विद्यार्थी’”
खोजो पुस्तकें उसकी,
मिलेंगे तुम्हें हिन्दी के वे भी शब्द,
जो वर्तमान में नहीं मिलेंगे
शब्दकोशों में भी|
मैं डायनासोर और आदिम मानव की भाँति
जीवाश्म बन हो जाऊँगा बहुमूल्य तब,
खोजेंगे लोग संग्राहलयों में मुझे,
क्योंकि जीवित की शून्य,
तथा मृतक और विलुप्तप्रायों की महिमा
गगन से भी विशाल,
हिरण्य से भी मूल्यवान हो जाती है|
मैं, मेरी भाषा, मेरे शब्द, मेरी पुस्तकें,
मरणोपरान्त अपने से अधिक,
प्राप्त करेंगे मूल्य अपना|