शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

4.1.25

मेरी आवाज़ सुनो

मेरी आवाज़ सुनो,
सुनो, पीड़ा, व्यथा, कराह से भरा क्रन्दन मेरा।
सुनो, मेरी बिवाइयों, छालों, फफोलों से
बहते आँसुओं को।
सुनो, टूटे जबड़ों, बिखरी पसलियों, निकली अन्तड़ियों का रक्त प्रवाह मेरा।

कचरे गए आटे, तोड़े हुए चूल्हे, फेंक दी गईं रोटियों की भूख सुनो
लूटी गई बाल्टी, काटी हुई रसरी, रूँध दिए गए कुएँ की प्यास सुनों।
काटे हुए छज्जे, तोड़ी गई दीवार, खाली कराए गए आँगन की उजाड़ सुनो।

फाड़ी गई अँगिया को सुनो,
सुनो खरोंचे गए बदन को
और नोच दी गई इज़्ज़त की
चीत्कार सुनो।

सुनो विदीर्ण मस्तक की रेखाओं को,
भग्न कशेरुका की विपदाओं को सुनों
और सिर-से-पाँव तक लथपथ
निर्दय लाठी की मार को सुनो।

सुनो बिना मूल्यांकन की विफलता को,
युवावस्था की असफलता को सुनो
और सफलता हेतु उठाई हुई आवाज़ के लिए,
चेहरे पर किये गए
बूटों का प्रहार सुनो|

तुम सुनो
कि नहीं हो बहरे तुम,
देखो मुझे,
कि तुम्हारी आँखें भी हैं सही सलामत
करो कुछ
कि हाथ हैं बचे साबुत तुम्हारे
चलो साथ मेरे
कि जान है बची तुम्हारे पैरों में।

तुम विचारवान हो,
ज्ञानवान हो तुम,
तुम ही शक्तिशाली भी। 

मैं हाथ जोड़कर गला फाड़ कर
चीख-चीखकर रहा हूँ पुकार तुम्हें,
सुनो!
मेरी आवाज़ सुनो...

28.11.24

आँसू और झरना

आँसू भी होते हैं झरने जैसे,
जो मस्तिष्क की ऊँचाई से बहकर
कपोलों पर गिरकर बिखर जाते हैं। 

जैसे बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदें
पहाड़ का सीना फाड़,
बहने लगती हैं,
उसी प्रकार,
मन की अथाह व्यथा,
मानव हृदय को चीर,
धारा बन उमड़ पड़ती है,
और झरने लगती है नेत्रों के द्वार से
अविरल, निरन्तर, लगातार|

पर मौसम निश्चित नहीं होते आँसुओं के,
झरने की तरह|
होते ही दैहिक, दैविक, या भौतिक पीड़ा व्यक्ति को,
फूट पड़ते हैं,
आँखों के कोरों से,
किसी भी क्षण, दिन, महीने या ऋतुओं में

झरनों का बहना,
या
आँसुओं का झरना
धरती और मनुष्य की प्राकृतिक स्वाभाविक प्रक्रिया है,
जिसे धरती मार सकती है,
मानव रोक सकता है|
यदि मानव थामने का करता है,
यत्न बलपूर्वक,
वह स्वयं टूटकर छितरा जाता है
आजीवन अपने जीवन में|

10.10.24

इस युग का अप्रासंगिक

बहुधा कहते हैं लोग,
मुझसे आजकल,
ये तुम क्या लिखते हो हिन्दी के शब्द?
जिसमें रहता है,
तत्सम, तद्भव और साहित्यिकता की अधिकता?

ऐसे शब्द,
जो नहीं हैं किसी भी प्रकार से प्रचलन में,
सिवाय उपहास के|

वे शब्द,
जिनका स्वप्न में भी,
औपचारिक, अनौपचारिक-सम्वाद, गोष्ठी, सम्मेलनों में,
भाषण, लेख, काव्यपाठ, वार्तलाप या लेखन में ही
चूकवश भी नहीं करता प्रयोग कोई|

ऐसे शब्द,
जिसे शिक्षक भी नहीं चुनते हेतु व्याख्या के,
न ही विद्यार्थियों की है
अभिरुचि इसे जानने या पढ़ने में|

है कौन,
जो पढ़ेगा इन्हें?
समझेगा इन्हें?
गुनेगा इन्हें?
देगा प्रेम और सम्मान भी?
वह भी तब;
जबकि हमारे पास,
अंग्रेज़ी, उर्दू, अरबी, फ़ारसी सहित
कई अन्य भाषाओँ से मिश्रित,
‘मिश्र भाषा’,
सरल शब्दों में है,
सहजता से उपलब्ध...

तब मैं कहता हूँ उनसे,
निःसन्देह;
आज मेरी भाषा, मेरे शब्द हो रहे हैं
नगण्य, उपेक्षित, अपमानित भी,
किन्तु एक काल आएगा,
ऐसा भी
जब हिन्दी, इसके शब्द, इनकी प्रसंगिकता
हो रही होगी विलुप्त इस संसार से,
तब लोग खोजेंगे लेखनी मेरी,
और कहेंगे,
“उस युग में होता था,
उस युग का अप्रासंगिक कवि एक,
क्या तो बड़ा ही अच्छा-सा है नाम उसका,
हाँ ‘विद्यार्थी’ जितेन्द्र देव पाण्डेय ‘विद्यार्थी’”
खोजो पुस्तकें उसकी,
मिलेंगे तुम्हें हिन्दी के वे भी शब्द,
जो वर्तमान में नहीं मिलेंगे
शब्दकोशों में भी|

मैं डायनासोर और आदिम मानव की भाँति
जीवाश्म बन हो जाऊँगा बहुमूल्य तब,
खोजेंगे लोग संग्राहलयों में मुझे,
क्योंकि जीवित की शून्य,
तथा मृतक और विलुप्तप्रायों की महिमा
गगन से भी विशाल,
हिरण्य से भी मूल्यवान हो जाती है|

मैं, मेरी भाषा, मेरे शब्द, मेरी पुस्तकें,
मरणोपरान्त अपने से अधिक,
प्राप्त करेंगे मूल्य अपना|

16.7.24

नागराज

हे नागराज!
तुम डसो ही मत।
मत न धँसाओ गरल युक्त दन्त,
किसी की देह में,
न करो विष-वमन ही,
अरि-शोणित में।

मैं कहता हूँ-
करो आचरण विपरीत अपने व्यवहार के;
सरक जाओ चुपके से तब भी,
यदि पाओ आहट घोर संकट की आसपास अपने।
तुम जियो स्वयं,
और जीने दो औरों को,
बिना कोई हानि पहुँचाए।

किन्तु,
सावधान!
जब तुम्हारी शान्ति का
उठाने लगे अनुचित लाभ कोई,
देने लगे त्रास तुम्हें।

 तब,
अपने त्राण के लिए;
उठा लो सहस्र फण,
वासुकीनाथ की भाँति मारो फुफकार,
डस लो तक्षक की भाँति से फूलों से निकल कर,
चुभा दो समस्त दन्तपंक्तियाँ एक साथ,
और पलट जाओ वहीं पर,
उछर दो कालकूट शत्रु की रक्त-शिराओं में।

मैं तो कहता हूँ,
बाँध कर उन्हें अपनी कुण्डली में,
पीस डालो सम्पूर्ण कशेरुका,  
और लील जाओ उनकी सम्पूर्ण देह को ही,
धारण कर विकट रूप अजगर का।

कृष्ण कहता है,
“बात पहले शान्ति की हो,
और यदि बात न बने,
तो महाभारत रूपी क्रान्ति आवश्यक है।"

1.7.24

मैं न होता, तो?

मैं न होता, तो?
क्या स्थिर हो जाती पृथ्वी अपने अक्ष पर?
न उगता सूर्य,
न दिखतीं चन्द्र-कलाएँ,
स्तब्ध हो जाता यह ब्रह्माण्ड,
या निष्क्रिय हो जाता समय-चक्र ही,
मेरे अभाव में?

मैं न होता, तो?
क्या वायु न होती गतिमान,
स्रावित न होती तरंगिणी,
प्रज्जवलित न होती अग्नि,
तारक-शून्य होता व्योम,
या प्राणिहीन हो जाती धरा यह?

मैं न होता, तो?
क्या न जन्मता जीव कभी,
सभ्यताओं का न होता विकास क्या?,
और क्या न उपजतीं संस्कृतियाँ,
न बन पातीं श्रृंखलाएँ उसके संघ की,
या नष्ट हो जातीं सम्पूर्ण परम्पराएँ ही जीवन की|

मैं न होता, तो?
क्या न होते स्वप्न,
न जन्मतीं कल्पनाएँ,
न उदित होते विचार कभी,
न बनती धारणाएँ,
या सोच-शून्य ही हो जाता मानव-समाज यह?

मैं न होता, तो?
क्या न बनते धर्म,
न उपजता सम्प्रदाय,
वर्णों का न होता विभाजन कभी,
न बाँटा जाता देही जाति में,
या समस्त सृष्टि होती एकाकार?

मैं न होता, तो?
क्या न होता अस्तित्ववाद,
अहंकार का भाव न उपजता,
द्वेषहीन होते क्या जन सभी,
न होतीं विभीषिकाएँ क्या युद्ध की,
या मानव मात्र सामान होता जगत में?

मैं न होता, तो?
क्या सम्बन्ध न होते परस्पर,
न होता स्नेह का भाव,
अनुराग न होता क्या किसी चित्त में,
और प्रणयाभिसार में अनुरक्त भी,
या जीवात्मा हो जाता रागहीन ही?

सुनों,
ऐसा कुछ नहीं होता|
मेरे होने,
या न होने से|
मैं, तुम या कोई भी सजीव-निर्जीव,
इस स्थूल जगत में एक रज हैं मात्र,
जिसकी नहीं है कोई गणना,
इस अगणित के समक्ष|
यह प्रकृति, इसकी सृष्टि,
यह काल, इसकी चाल
यह ब्रह्माण्ड, इसके काण्ड
अनन्त हैं,
निर्बाध रूप से,
होते रहेंगे वैसे ही संचालित,
जैसे ही युग-युगान्तरों से होते आए हैं|

ये पद का मद,
एक क्षणिक राग है व्यक्ति के मन का,
जो उत्पन्न करता है भ्रम श्रेष्ठता का,
परन्तु अन्तर्मन में,
जब होता है दृष्टिमान सत्य इसका,
और मनः-पटल पर प्रारम्भ होता है चिन्तन गहन,
तब उस विषाद से मुक्त हो,
बन जाता बुद्ध वह,
और मिश्रित कर काल-धारा में,
कर लेता है शून्य स्वयं को,
और लीन हो जाता है,
अनन्त ब्रह्माण्ड में|

अतः, हे प्रिय!
मेरे और अपने होने का अहंकार मन से त्याग,
वह करो,
जो तुम्हारा कर्तव्य है,
मैं भी वही करता हूँ,
जिसपर है वश मेरा,
किन्तु उसके परिणाम पर नहीं है कोई अधिकार
न तुम्हारा, न ही मेरा|
उसका अधिपति
काल ही है मात्र|

30.6.24

बीता-रीता मैं

कभी-कभी लगता है,
करूँ सम्वाद उन लोगों से,
जो थे मेरे निकटवर्ती कभी|
किन्तु उनकी व्यस्तताएँ,
दैनिक प्राथमिकताएँ
और मुझसे बात करने की उनकी अनिच्छा
रोक देती है मुझे|

वैवाहिक कार्यक्रमों में
पचास जन मात्र ही होंगे सम्मिलित”
वाले नियम में,
सम्भवतः उनकी सूची में मैं,
बहुत पीछे आता हूँ कहीं|

लोग रहते हैं आलिंगित
वर्तमान के प्रेम,
और भविष्य के दिवा-स्वप्न से,
किन्तु भयभीत रहते हैं भूत से|

मैं उनके भूत में
बीता और रीता हुआ हूँ,
और रीते हुए समय के लिए,
कोई अपना समय नष्ट नहीं करता|

25.6.24

आजकल तुम पीने लगे बहुत

आजकल तुम पीने लगे बहुत
कोई ग़म है, या रुमानियत है कोई?

बड़ी ख़ामोशी रहती है ज़ुबाँ पर
हमराज़ नहीं है, या रिवायत* है कोई?

नज़रें मिलाने से नज़र काँपती है
मुझे धोखा है, या असलियत है कोई?

हथेली पर तुमने लिखा कुछ ख़ून से
ये ख़त है, या वसीयत है कोई?

दूर रहने लगे हो अब तुम बज़्म से
डरते हो रक़ीब से, या ख़ासियत है कोई

सुना कि मय करता है दूर दर्द-ए-दिल
ये घुट के मरना है, या हक़ीक़त है कोई?