शब्द समर

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7.10.25

हम जो कुकुरमुत्ते ही रहे…

हम आदि से अब तक,
कन्दमूल की भाँति,
गड़े पड़े थे मिट्टी के भीतर कहीं —
सघन वनांचलों,
पहाड़ों की अँधेरी गुफाओं,
नदियों के किनारे,
बिना इस भान के
कि हम वनवासी हैं,
या है हमारा अस्तित्व कुछ और भी।

हम प्रकृति
और वर्षा-जल पर आश्रित,
उसके ऋतुओं पर विश्वास के साथ,
मौसमी रहे आए।

कालान्तर में,
हम पर पड़ी दृष्टि कुछ भूखे सैलानियों की।
उन्होंने हमें खोद निकाला,
आलू-अरबी की तरह।
और दिखाई हमें ब्रोकली और गोभी
की सुन्दरता।
साथ ही किया प्रेरित,
प्राप्त करने को सौन्दर्य उतना ही।
दिखाया गया स्वप्न —
निखारने को रंग हमारा,
कि
स्याह-धूसर वर्ण
बन जाएगा श्वेत और चमकदार।

स्वभावानुसार, हम भी हुए मोहित,
और जीने की इच्छा हुई
बैंगन-भिण्डी की तरह।
जिस प्रकार नेनुआ-तोरई में
नहीं आने दिया जाता
 स्वाद कभी
कद्दू-लौकी का
,
उसी प्रकार, हम भी नहीं बन पाए —
परवल, शिमला मिर्च, सेम बीज या मटर कभी।

सैलानियों की दिखाई दुनिया को देखने,
शलजम, चुकन्दर की तरह
जैसे ही निकाला गर्दन थोड़ा-सा —
हम काट दिए गए मूली-गाजर की तरह,
और चीरे गए पालक-चौंराई बनाकर।
हम काटे और चीरे ही गए थे,
कि तभी ज़िन्दगी ने हमें कूट दिया,
सोंठ और अदरक की तरह।
फिर कई लोग आए,
सेवक और हमदर्द बनकर,
और हमारी ज़िन्दगी को
प्याज़ के छिलके की तरह उतारने लगे,
नीछने लगे लहसुन की कली बनाकर। 

हमारी ज़िन्दगी में भरी —
करेले की कड़वाहट,
और हरी मिर्च के तीखेपन से
आँसू झरने की तरह बह निकले।
और वे —
टमाटर, नींबू, में काला नमक मिलाकर,
लेने लगे चटखारे हमारे दर्द का,
और बेचने लगे,
मसाले मिलाकर
एवाकाडो के समाचार के रूप में|

तेज पत्ता की तरह तड़के में पड़ने वाले हम,
कड़ाही में ही जलते रहे,
पर कभी
धनिया पत्ती बन महक नहीं पाए।
तेल में सबसे पहले खौला देने के बाद भी,
अपने होने का
न ही किसी को एहसास करा पाए।

लोगों की बातों में आकर,
हम चले तो थे —
मशरूम बनकर,
अपनी छतरी को आसमान में फैलाने,
पर एक वर्ग आज भी है
जो हमें कुकुरमुत्ता ही कहता है,
खाना भी नहीं चाहता,
और कटहल में लगे काँटे की ही भाँति
हम उपेक्षित रहे आए| 

सदियाँ बीत गईं —
हमें खोदे हुए,
निकाले हुए,
धोए हुए।
पर आज तलक हमें
न तो गोभी की सुन्दरता मिली,
न ही ब्रोकली वाला भाव।

हम आज भी आदिवासी कन्दमूल की ही तरह
अपना भावहीन, अर्थहीन जीवन जी रहे हैं।
और वे —
सब्ज़ियों का व्यापार करके
करोड़पति बन चुके हैं। 

26.9.25

हे माधव!

जब श्याम मेघ भी सूखें हों,
और धरती हो ऊसर-बंजर,
जब पवन अग्नि की ज्वाला हो,
और वृक्ष दिखें निर्जर-जर्जर।

जब रात्रि गहन अँधेरी हो,
और जीवन आशा-हीन लगे,
जब मार्ग लगें भयकर सारे,
और वाणी भाषा-हीन लगे।

जब साथ न हो मैत्री कोई,
और एकल-जीवन वासी हो,
जब उल्लास पतित हो नेत्रों से,
और सर्वांग पूर्ण उदासी हो।

तब हाथ तुम्हारा आता है —
हे केशव! मेरे सखा, सुनो,
तब साथ तुम्हारा आता है —
हे माधव! तू ही दिखा, सुनो।

मातृ-पितृ का स्नेह मिला,
भ्राता-भगिनी से पूर्ण किया,
वसुधा-सम कुटुम्ब दिया,
जीवन-रस सम्पूर्ण दिया।

उजाड़, निर्जन उपवन में,
तुमने जो सुमन खिलाया है,
तन-मन से मैं तृप्त हुआ,
जीवन सम्पूर्ण ही पाया है।

कृष्ण दिया, कृष्णा दिया,
मधुवन को मधुमास दिया,
निर्मल-निश्छल हृदय दिया,
दिव्य शान्ति का वास दिया।

अब और न माँगूँ कुछ तुझसे —
ओ मोहन! मेरे मित्र, सुनो,
अनुसरण करूँ शरण तेरी,
और चित में तुम्हारा चित्र, सुनो।

25.9.25

यारियाँ

यारियाँ नहीं होतीं टूटने को
जो टूट जाएँ, यारियाँ नहीं होतीं|

मुश्किलों से उबरना है नहीं आसाँ  
जो उबर जाएँ, दुश्वारियाँ नहीं होतीं| 

बेकाम हैं जवानियाँ आजकल  
जो काम आ जाएँ, बेकारियाँ नहीं होती| 

बे-तआल्लुक़ है ज़िन्दगी उनकी
जो बे-तार्रुफ़ हो जाएँ, वफ़ादारियाँ नहीं होतीं|

ज़िन्दगी का सौदा ज़िन्दगी नहीं होती
जो ज़िन्दगी हो जाएँ, करोबारियाँ नहीं होतीं|


18.9.25

वेदना की सहचरी-स्त्री

चिकित्सक बोले –
“देवि, आवश्यक है आपको पूर्ण विश्रान्ति।
नितान्त शैय्या-विश्राम ही देगा त्राण
इस कटि-पीड़ा से!”

विनम्र निवेदन है, वैद्यवर –
क्या यह सम्भव है यथार्थ में?
कि एक स्त्री,
जो जी रही है मातृत्व का सतत जीवन,
जो है पत्नि किसी पुरुष की,
गृहिणी एक विस्तृत कुल की,
जहाँ वास करते हैं –
सास-श्वसुर,
ज्येष्ठ-जिठानी,
और घर के अन्य अंग।

जहाँ दिन नहीं होता विश्रान्त,
रात्रि नहीं होती रिक्त।
जहाँ अष्टयाम चलती है
कर्तव्यों की शृंखला।
जहाँ मेरी कर्मठता
ही आधार है-
परिवार के सन्तुलित धुरी की,
और मेरी थकान की भी,
कभी नहीं होती किसी को चिन्ता।

वैद्यराज!
कोई ऐसा उपचार बताइए,
जो कर सके इस वेदना का शमन,
पर न बाधित हो
मेरी गृह-कर्तव्यों की निरन्तरता।

दीजिए कोई औषधि –
जो दे सके क्षणिक शान्ति भी,
और दीर्घकालिक सामर्थ्य भी,
ताकि मेरा श्वसुराल रहे प्रसन्न,
और मैं न कहलाई जाऊँ –
"आलसी", "अकर्मण्य", या
"आजीवन व्याधिपीड़ित"।

जब स्त्री ने कही
अपनी पीड़ा की यह अन्तर्वेदना,
तो वैद्य ने कर लिया धारण मौन।
पुनः कुछ क्षण के,
दीर्घ श्वसित हो बोले –

“हे देवि,
यदि आप हैं इस समाज की स्त्री,
तो फिर यह पीड़ा
आपकी सहचरी ही कहलाएगी।
चाहे आप हों स्त्री किसी
कुलीन की,
या मलिन गृह-वासी हों।
आप हों
विस्तारित-परिवार में,
या जीती हों नितान्त
निजी, एकल जीवन। 

स्त्रियों के लिए यह संसार
वेदना-रहित नहीं है।
पीड़ा और स्त्री
सहोदरी न हों भले ही,
परन्तु सखियाँ अवश्य हैं –
जो जीवनभर साथ निभाती हैं,
और साथ छोड़ती हैं
मात्र उसी क्षण,
जब स्त्री मुक्त होती है
इस भव-सागर से।”

30.8.25

मोर नहीं भए मोरे सँवरिया

भोर भयी घनश्याम न आए
बाट जोहत मोर बीती रे रतिया

किस सौतन संग रास रचायो
सुधि करि करि मोर बिहरे रे छतिया

मुझ बिरहन पर तरस न आई
ऐसी लुभा के गई रे सवतिया

रंग भी श्याम औ अंग भी कारो
साँवली सूरत मोहनी मुरतिया

माखनचोर ने हृदय चुरायो
मोर नहीं अब मोर सुरतिया

पीर हिया की कासूँ सुनाऊँ

मोर नहीं भए मोरे सँवरिया।

भारत की आत्मा की ओर

लोग कहते हैं, "तुम घूमते रहते हो।"
मैं भी कहता हूँ, "हाँ, मैं घूमता रहता हूँ।"

मैं घूमता रहता हूँ,
क्योंकि मुझे घूमना
है पसन्द;
पर मात्र इसलिए नहीं घूमता,
कि मैं घूमना चाहता हूँ।
मैं इसलिए भी घूमता हूँ,
ताकि घूम-घूमकर
मैं घूम सकूँ भारतवर्ष को,
और जान सकूँ इसकी विशेषता को।

मेरा घूमना
नहीं होता घूमना मात्र —
चमकती कारों में,
सुन्दर-चमकीली सड़कों पर।
मेरा घूमना होता है —
सुदूर गाँवों, दुर्गम वनांचलों में,
जहाँ
मैं चलता हूँ कोसों पैदल,
चढ़ता हूँ उत्तुंग पर्वतमालाओं पर,
लाँघता हूँ हहाती-उफनाती नदियों को,
धँसता हूँ पिण्डलियों तक कीचड़ों में,
काँटों से उलझते-जूझते हुए
पहुँचता हूँ उन तक भी,
जो सदियों से
कटे हैं —
कथित इस सभ्य समाज से।

मेरा घूमना नहीं होता घूमना मात्र;
मेरे घूमने में
होती है भेंट —
जली हुई उघड़ी देह,
काँटों से बिंधे नंगे पाँव,
चिपचिपे, रूखे, उलझे केश,
कपाल में धँसी हुई आँखों में कीचड़,
पीठ से चिपकी हुई अन्तड़ियाँ,
और हृदय में अपार सम्मान लिए
धरणी-पुत्रों
और ग्राम्य-वधुओं से —
जिनमें होती है
प्रसन्नता और हर्ष,
तो वहीं छिपी होती है — किसी की पीड़ा-व्यथा,
जो वर्षों से,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी,
उनके जन्म के पूर्व से ही
चिपक जाती है साथ उनके।

मैं बैठ उनकी पंगति में,
उनके चूल्हे में
चुरे भात-दाल को खाता हूँ
बड़े ही चाव से।
खोल कर रख देता हूँ अपने कान,
मन को कर देता हूँ स्थापित उनके समक्ष,
ताकि पीड़ित की पीड़ा को
मैं कर सकूँ एकाकार स्वयं से।

समस्या रूपी अजगर से जकड़े लोग
नहीं जानते जतन अपनी त्राण का।
मेरे घूमने में जटिल-से-जटिल समस्या
होती है हल;
होते हैं समाधान उनके निवारण के —
जिनका अनुसंधान करते हैं
हम मिलजुलकर, एकजुटता से।

मेरे घूमने में
हमारे सुख, सीख, शिक्षा,
रीतियों, परम्पराओं और संस्कृतियों का
होता है निहित एक सार —
जो थोड़ा बँधता हूँ
मैं अपनी पोटली में,
और कुछ संजो लेते हैं वे
अपनी कुटिया में।

मेरा घूमना, घूमना नहीं है;
मेरा घूमना —
भारत की आत्मा को आत्मसात करना है,
वह आत्मा,
जो गांधी जी के अनुसार
"बसती है गाँवों में।"

26.7.25

स्मृति की नैतिकता

धीरे-धीरे व्यक्ति भूलने लगता है,
अपकार भी, उपकार भी।

अपकार भूलता है,
तो कृतज्ञता वश,
लगता है देने सम्मान उसी को,
जिसने किया होता है,
कभी घोर तिरस्कार
और अपमान भी कभी।
और जब भूलता है,
उपकार किसी का,
तो होता है कृतघ्न इस प्रकार
कि नहीं हिचकता करने में
तिरस्कृत, उपेक्षित या अपमानित उसे भी,
जो उसकी डूबती नौका का,
रहा था सहारा भी कभी।

अपकार भूल जाना,
एक श्रेष्ठ गुण भी है।
इससे व्यक्ति के महान बनने के,
खुलते हैं मनः एवं व्यक्तित्व द्वार,
परन्तु उपकार भूलना...?

उपकार करना
जितना ही है श्रेष्ठतम कार्य,
उसे भूलना
नीचता की पराकाष्ठा है।
यह कृत्य,
व्यक्ति के व्यक्तित्व को न मात्र
नाराधमता की ओर
खींच ले जाता है,
बल्कि उसके अधमपन को
सर्वत्र प्रदर्शित भी कर देता है|

अतः अपकार भूल,
यदि उपकार न भी कर सकें,
तो न करें कोई खेद मन में,
परन्तु उपकार भूलकर,
अपकार न करें किसी का,
प्रयास करें यहाँ तक
कि शत्रु का भी पीठ पीछे अहित न हो।