शब्द समर

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10.10.24

इस युग का अप्रासंगिक

बहुधा कहते हैं लोग,
मुझसे आजकल,
ये तुम क्या लिखते हो हिन्दी के शब्द?
जिसमें रहता है,
तत्सम, तद्भव और साहित्यिकता की अधिकता?

ऐसे शब्द,
जो नहीं हैं किसी भी प्रकार से प्रचलन में,
सिवाय उपहास के|

वे शब्द,
जिनका स्वप्न में भी,
औपचारिक, अनौपचारिक-सम्वाद, गोष्ठी, सम्मेलनों में,
भाषण, लेख, काव्यपाठ, वार्तलाप या लेखन में ही
चूकवश भी नहीं करता प्रयोग कोई|

ऐसे शब्द,
जिसे शिक्षक भी नहीं चुनते हेतु व्याख्या के,
न ही विद्यार्थियों की है
अभिरुचि इसे जानने या पढ़ने में|

है कौन,
जो पढ़ेगा इन्हें?
समझेगा इन्हें?
गुनेगा इन्हें?
देगा प्रेम और सम्मान भी?
वह भी तब;
जबकि हमारे पास,
अंग्रेज़ी, उर्दू, अरबी, फ़ारसी सहित
कई अन्य भाषाओँ से मिश्रित,
‘मिश्र भाषा’,
सरल शब्दों में है,
सहजता से उपलब्ध...

तब मैं कहता हूँ उनसे,
निःसन्देह;
आज मेरी भाषा, मेरे शब्द हो रहे हैं
नगण्य, उपेक्षित, अपमानित भी,
किन्तु एक काल आएगा,
ऐसा भी
जब हिन्दी, इसके शब्द, इनकी प्रसंगिकता
हो रही होगी विलुप्त इस संसार से,
तब लोग खोजेंगे लेखनी मेरी,
और कहेंगे,
“उस युग में होता था,
उस युग का अप्रासंगिक कवि एक,
क्या तो बड़ा ही अच्छा-सा है नाम उसका,
हाँ ‘विद्यार्थी’ जितेन्द्र देव पाण्डेय ‘विद्यार्थी’”
खोजो पुस्तकें उसकी,
मिलेंगे तुम्हें हिन्दी के वे भी शब्द,
जो वर्तमान में नहीं मिलेंगे
शब्दकोशों में भी|

मैं डायनासोर और आदिम मानव की भाँति
जीवाश्म बन हो जाऊँगा बहुमूल्य तब,
खोजेंगे लोग संग्राहलयों में मुझे,
क्योंकि जीवित की शून्य,
तथा मृतक और विलुप्तप्रायों की महिमा
गगन से भी विशाल,
हिरण्य से भी मूल्यवान हो जाती है|

मैं, मेरी भाषा, मेरे शब्द, मेरी पुस्तकें,
मरणोपरान्त अपने से अधिक,
प्राप्त करेंगे मूल्य अपना|

16.7.24

नागराज

हे नागराज!
तुम डसो ही मत।
मत न धँसाओ गरल युक्त दन्त,
किसी की देह में,
न करो विष-वमन ही,
अरि-शोणित में।

मैं कहता हूँ-
करो आचरण विपरीत अपने व्यवहार के;
सरक जाओ चुपके से तब भी,
यदि पाओ आहट घोर संकट की आसपास अपने।
तुम जियो स्वयं,
और जीने दो औरों को,
बिना कोई हानि पहुँचाए।

किन्तु,
सावधान!
जब तुम्हारी शान्ति का
उठाने लगे अनुचित लाभ कोई,
देने लगे त्रास तुम्हें।

 तब,
अपने त्राण के लिए;
उठा लो सहस्र फण,
वासुकीनाथ की भाँति मारो फुफकार,
डस लो तक्षक की भाँति से फूलों से निकल कर,
चुभा दो समस्त दन्तपंक्तियाँ एक साथ,
और पलट जाओ वहीं पर,
उछर दो कालकूट शत्रु की रक्त-शिराओं में।

मैं तो कहता हूँ,
बाँध कर उन्हें अपनी कुण्डली में,
पीस डालो सम्पूर्ण कशेरुका,  
और लील जाओ उनकी सम्पूर्ण देह को ही,
धारण कर विकट रूप अजगर का।

कृष्ण कहता है,
“बात पहले शान्ति की हो,
और यदि बात न बने,
तो महाभारत रूपी क्रान्ति आवश्यक है।"

1.7.24

मैं न होता, तो?

मैं न होता, तो?
क्या स्थिर हो जाती पृथ्वी अपने अक्ष पर?
न उगता सूर्य,
न दिखतीं चन्द्र-कलाएँ,
स्तब्ध हो जाता यह ब्रह्माण्ड,
या निष्क्रिय हो जाता समय-चक्र ही,
मेरे अभाव में?

मैं न होता, तो?
क्या वायु न होती गतिमान,
स्रावित न होती तरंगिणी,
प्रज्जवलित न होती अग्नि,
तारक-शून्य होता व्योम,
या प्राणिहीन हो जाती धरा यह?

मैं न होता, तो?
क्या न जन्मता जीव कभी,
सभ्यताओं का न होता विकास क्या?,
और क्या न उपजतीं संस्कृतियाँ,
न बन पातीं श्रृंखलाएँ उसके संघ की,
या नष्ट हो जातीं सम्पूर्ण परम्पराएँ ही जीवन की|

मैं न होता, तो?
क्या न होते स्वप्न,
न जन्मतीं कल्पनाएँ,
न उदित होते विचार कभी,
न बनती धारणाएँ,
या सोच-शून्य ही हो जाता मानव-समाज यह?

मैं न होता, तो?
क्या न बनते धर्म,
न उपजता सम्प्रदाय,
वर्णों का न होता विभाजन कभी,
न बाँटा जाता देही जाति में,
या समस्त सृष्टि होती एकाकार?

मैं न होता, तो?
क्या न होता अस्तित्ववाद,
अहंकार का भाव न उपजता,
द्वेषहीन होते क्या जन सभी,
न होतीं विभीषिकाएँ क्या युद्ध की,
या मानव मात्र सामान होता जगत में?

मैं न होता, तो?
क्या सम्बन्ध न होते परस्पर,
न होता स्नेह का भाव,
अनुराग न होता क्या किसी चित्त में,
और प्रणयाभिसार में अनुरक्त भी,
या जीवात्मा हो जाता रागहीन ही?

सुनों,
ऐसा कुछ नहीं होता|
मेरे होने,
या न होने से|
मैं, तुम या कोई भी सजीव-निर्जीव,
इस स्थूल जगत में एक रज हैं मात्र,
जिसकी नहीं है कोई गणना,
इस अगणित के समक्ष|
यह प्रकृति, इसकी सृष्टि,
यह काल, इसकी चाल
यह ब्रह्माण्ड, इसके काण्ड
अनन्त हैं,
निर्बाध रूप से,
होते रहेंगे वैसे ही संचालित,
जैसे ही युग-युगान्तरों से होते आए हैं|

ये पद का मद,
एक क्षणिक राग है व्यक्ति के मन का,
जो उत्पन्न करता है भ्रम श्रेष्ठता का,
परन्तु अन्तर्मन में,
जब होता है दृष्टिमान सत्य इसका,
और मनः-पटल पर प्रारम्भ होता है चिन्तन गहन,
तब उस विषाद से मुक्त हो,
बन जाता बुद्ध वह,
और मिश्रित कर काल-धारा में,
कर लेता है शून्य स्वयं को,
और लीन हो जाता है,
अनन्त ब्रह्माण्ड में|

अतः, हे प्रिय!
मेरे और अपने होने का अहंकार मन से त्याग,
वह करो,
जो तुम्हारा कर्तव्य है,
मैं भी वही करता हूँ,
जिसपर है वश मेरा,
किन्तु उसके परिणाम पर नहीं है कोई अधिकार
न तुम्हारा, न ही मेरा|
उसका अधिपति
काल ही है मात्र|

30.6.24

बीता-रीता मैं

कभी-कभी लगता है,
करूँ सम्वाद उन लोगों से,
जो थे मेरे निकटवर्ती कभी|
किन्तु उनकी व्यस्तताएँ,
दैनिक प्राथमिकताएँ
और मुझसे बात करने की उनकी अनिच्छा
रोक देती है मुझे|

वैवाहिक कार्यक्रमों में
पचास जन मात्र ही होंगे सम्मिलित”
वाले नियम में,
सम्भवतः उनकी सूची में मैं,
बहुत पीछे आता हूँ कहीं|

लोग रहते हैं आलिंगित
वर्तमान के प्रेम,
और भविष्य के दिवा-स्वप्न से,
किन्तु भयभीत रहते हैं भूत से|

मैं उनके भूत में
बीता और रीता हुआ हूँ,
और रीते हुए समय के लिए,
कोई अपना समय नष्ट नहीं करता|

25.6.24

आजकल तुम पीने लगे बहुत

आजकल तुम पीने लगे बहुत
कोई ग़म है, या रुमानियत है कोई?

बड़ी ख़ामोशी रहती है ज़ुबाँ पर
हमराज़ नहीं है, या रिवायत* है कोई?

नज़रें मिलाने से नज़र काँपती है
मुझे धोखा है, या असलियत है कोई?

हथेली पर तुमने लिखा कुछ ख़ून से
ये ख़त है, या वसीयत है कोई?

दूर रहने लगे हो अब तुम बज़्म से
डरते हो रक़ीब से, या ख़ासियत है कोई

सुना कि मय करता है दूर दर्द-ए-दिल
ये घुट के मरना है, या हक़ीक़त है कोई?

25.4.24

हालात बिगड़ गये मुझसे

हालात बिगड़ गये मुझसे
कितने बिछड़ गये मुझसे 

बहारों ने यूँ किनारा किया
लिपट गये पतझड़ मुझसे 

आँखें रहीं उनीदी ही
ख़्वाब गये उजड़ मुझसे 

हाथ, हाथ से दूर है
रिश्ते गये उखड़ मुझसे

रेत-सी रिस गईं साँसें
ढीली हुई पकड़ मुझसे

उमीदों को भी नाउमीदी है

किस्मत गई है लड़ मुझसे 

19.1.24

हमाम और ठण्ड


आज भोरे-भोरे हम टहलते हुए बाबू हनुमन्त सिंह के खेत की ओर पहुँचि गए| दूरिन से देखा कि बाबू साहब आलू की कियारियों के बीच केवल एक ठो जाँघिया पहिरे इधर-से-उधर पैकी नाधे हुए हैं| थोड़ा नगीचे पहुँचे, तो देखा कि बाल्टी में पानी भरा है, अउर दस-पन्द्रह मीटर दूरी पर उनका हरवाह जामवन्त कोल आगी बारे हुए है| हमारी अउर बाबू साहब के बीच हँसी ठिठोली चलती रहती है, तो हम पूछिन लिए, “का बात है लाल साहब, आजु कइसन महँगू धोबी की कुकुर नाई आगी-पानी के बीच में फेरी देइ रहे हैं, उहउ एकदम नागा रूप धरे नंग-झड़ंग खेत को हमाम बनाए हुए? मन्दिर निर्माण के लिए व्रत-उपवास कल्लिये का? आप तो देशद्रोही पार्टी कांग्रेस के समर्थक हैं? अब आपकी पार्टी हाईकमान के सामने का इज्जत रह जाएगी?

हमको समीप आता देख अब ऊ मेट्रो ट्रेन की गति पकड़े इधर-उधर दउड़ने लगे थे, पै हमारी इतनी बात सुनते ही उन्होंने हमें अइसे ताका, जैसे हम, हम नहीं, रंगा सियार की तरह, पत्रकारिता रुपी नाद में, देशभक्ति के चरस में रंगा हुआ सुधीर तिहाड़ी हैं, जो स्टेनगन की गोलियों की तरह उन पर एजेंडा आधारित सवाल दागे जा रहे हैं| उनकी आँखन की ज्वाला देखकर हम तनिक सहम गए, अउर आँख मारकर बोले, “अरे! हम तो मजाक कर रहे थे|”

ऊ बोले, “अब का बताएँ विद्यार्थी जी?” हम बोले, “तो झैं बताएँ|” तो ऊ मनुहार में बोले, “अरे नहीं अब आप ने पूछिन लिया है, तो बताए देते हैं|” अब उनकी गति मेमू ट्रेन की तरह हो गई थी, जो अपने गन्तव्य तक तीन दिनों की देरी से भी पहुँच जाए, तो यात्रियों का सौभाग्य माना जाता है| अपने हाथन की हथेलियों को मलते हुए, कभी छाती छुपाते, तो कभी जाँघ, अउ कभी दोनों कान| अपनी इन्हीं गतिविधियों को करते हुए ऊ बोले, “मान लीजिए कि हमको नहाना है|” अउर ई पानी ससुरा अन्टार्कटिका की बर्फ से भी अधिक ठण्डा है, देह में छुआते ही अइसा लगता है, जइसे कोई बरछी-बल्लम लेके हमारी छाती छेद रहा हो| अब नहाएँ तो कइसे?” हमने कहा, आप तो लाल साहब हैं, आपके लिए बरछी-बल्लम, तीर-तलवार की क्या औकात, देश का सारा इतिहास आपकी वीरता से भरा पड़ा है?” उन्होंने कहा, हथियारों की बात अलग है विद्यार्थी जी, ई ससुरा पानी है| हथियार होता, तो इतना कहने पर अब तक आपकी ही मुण्डी धरती माता को चूमती होती, पर ई ठण्डे पानी का सामना करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं|

हमने कहा, “आप तो हनुमन्त हैं, ऊपर सिंह अलग से| दो-दो उपाधियों से सुसज्ज्तित है आपका नाम| आपका हरवाह है, ऊ जामवन्त है| कहिये जामवन्त को चढ़ाए आपको झाड़ में और हरहरा लीजिए आप एक बाल्टी पानी|” ऊ बड़े ही निराश शब्दन में बोले, “ऊ त्रेता था महराज, जब जामवन्त के कहने पर हनुमान लला समुद्र के गरम-कुनकुना पानी को लाँघ गये, ई कलजुग है, यहाँ इस हनुमन्त सिंह को ये जामवन्त तो क्या, वो जामवन्त भी बोलें न, तब भी हम एतना ठण्डा पानी से नहाना तो क्या, झाड़ा फिरने के बाद सौंचें भी नहीं|”

हम उनसे तनिक दूरी बनाते हुए पूछा, तो आज...? ऊ हमारी बात समझि गये, समझते हुए बोलिन, सीक्रेट है|”