तब जानोगे-
माह-प्रति-माह
कटते हुए पेट से,
थक्का बनकर
अनायास प्रवाहित रक्तिम-व्यथा को|
यूँ तो होते हैं मात्र दिन चार ही,
किन्तु
धँसोगे उस देह में
जब समझोगे चीर देने वाली
अनिच्छित मासिक-यन्त्रणा को।
धँसोगे उस देह में
तब समझोगे-
कितना कठिन होता है,
महीनों किसी शरीर को,
अपने शरीर में ढोना।
ढोते हुए-
क्षण-क्षण रहना प्रतीक्षित
सकुशल नवजातालिंगन के|
धँसोगे उस देह में,
तब जानोगे
कंटक-मार्ग एक गर्भिणी का|
धँसोगे उस देह में
तब जानोगे-
मिलती है कितनी घोर यातना,
जब देह में से,
देह होती है विलग।
जब धौंकनी हो जाती है छाती,
ज्वालामुखी फट पड़ता है ब्रह्माण्ड से,
पेट में आती है प्रलय की धार,
और आपादमस्तक
थर्राता है भूकम्पमय व्यथा से,
तब छोटी-सी नलिका से
बहकर आता दूसरा शरीर।
धँसोगे उस देह में
जब समझोगे प्राणान्तक प्रसव-सन्ताप को|
स्त्री को देवि बनाने वालों,
स्वार्थहित फुसलाने वालों,
अभद्र हास्य बरसाने वालों,
नित्यादेश सुनाने वालों,
कमतर उसे बताने वालों,
भोग-वस्तु समझाने वालों,
गृह-दासी उसे बनाने वालों,
धँसोगे उस देह में
तब जानोगे
कितना कठिन होता है
इस संसार में स्त्री बनकर जीना।
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