माता-पिता जब पीटते हैं, तो
दुलराते भी हैं। सिसकते-सुबकते हुए शिशु को, उसे
स्थिर होने तक थपकाते हैं। जब शिशु को यह लग जाता है कि उसकी त्रुटि अब क्षमा की
जा चुकी है, तब वह धीरे से माता-पिता के आलिंगन से
निकल अपनी उन्हीं चर्याओं में लग जाता है। दोनों पीढ़ियों के मध्य का यही मूल
स्वभाव है।
'वात्सल्य और श्रद्धा'-दोनों
के मध्य के सम्बन्धों की यही डोर होती है। एक छोर में चञ्चलता, निश्चलता, पवित्रता, अज्ञानता, किलकारी, खिलखिलाहटें
होती हैं, तो दूसरे छोर में प्रेम, वात्सल्य, मुस्कुराहट, मिठास, दपट
होती है। परन्तु इस पूरे डोर में आदि से अन्त तक कहीं भी छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष
की एक महीन-सी भी सुतली नहीं होती।
अब इसी सम्बन्ध के रूप को बढ़ती आयु के आधार पर देखें, जब
माता-पिता वृद्ध, और वही शिशु युवा या प्रौढ़ हो चुका है।
माता-पिता का स्वभाव शिशुवत होने लगा है, तब
उपरोक्त समस्त मनोभावों में अधिकतर गहरा परिवर्तन दिखाई देता है।
माता-पिता रोते कराहते रहते हैं, सन्तान
उनकी ओर ध्यान नहीं देते, बहुत पीड़ा में जब बिलखने लगते हैं, तो
सन्तान उन्हें डाँट देती है, उनके उलाहने पर, झुँझलाहट
या तमाचे होते हैं। इन सबके पश्चात भी सन्तान की ओर से दो मीठे बोल नहीं निकलते, जो
माता-पिता को लगा आत्मिक पीड़ा को थोड़ा-सा भी कम कर सकें।
'भय और लालच'- इस
सम्बन्ध की डोर का मूल स्वभाव बन चुका है। अब माता-पिता और बच्चे के मध्य जो डोर
है, उसमें एक ओर निर्बलता, हताशा, निराशा, निस्सहायता, परतंत्रता, आँसू
होते हैं, तो दूसरी ओर धन, विरासत, पूँजी, लालच, खसोट।
इसका मध्य विलासता, षड्यंत्र, छल-छद्म, कड़वाहट, खटास
के कारण घिस कर इतना कमज़ोर जाता है कि जब कभी माता-पिता को इस डोर से जल खींचने की
आवश्यकता होती है, यह टूट जाती है, और
माता-पिता वृद्धावस्था में प्यासे रह जाते हैं।
यही वह समय होता है,जब बच्चे को अपने माता-पिता का अभिभावक
बनने की आवश्यकता होती है। उस डोर में माता-पिता की चिन्ता, देखभाल, औषधियों, सेवा, सत्कार, इच्छापालन
की सुतलियों से डोरी को मोटा रस्सा बनाएँ, ताकि
जब कभी माता-पिता को आवश्यकता हो, वे इस रस्सी से जितना चाहें, प्रसन्नता, आनन्द, सुख, निश्चिन्तता
के जल का मधुर पान कर सकें, और वह रस्सा कभी भी न घिसे, न
टूटे।
शिशु के शैशव में माता-पिता अपनी सन्तान के प्रति जितने उत्तरदायी
होते हैं, उससे कहीं अधिक माता-पिता के
वृद्धावस्था को प्राप्त होने के पश्चात सन्तानों का उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। बस
इसे समझने की आवश्यकता होती है।
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