शब्द समर

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24.9.19

मरी आवाजें इंक़लाब नहीं ला सकतीं

थकी और मरी हुई आवाज़ें,
न जग सकती हैं,
न जगा सकती हैं।
न उठ सकती हैं,
न उठा सकती है।
न चल सकती हैं,
न चला सकती हैं।
न दौड़ सकती हैं,
न दौड़ा सकती हैं।

आवाज़ों में चाहिए ग़र इंक़लाब-
तो मुट्ठियों को भींच लो,
आँखों को खींच लो
उछाल दो जहान में
लहरा दो आसमान में,
कि एक साथ में बोल दो
हवा में स्वर को घोल दो।
कि घुलने दो स्वरों को तुम
उड़ने दो परों को तुम
अब ये पर रुके नहीं
अब ये सर झुके नहीं।

कि उड़ चलो वहाँ पे तुम
जहाँ हैं राजा-रानियाँ
बन रही हर रोज़ जहाँ
लूट की कहानियाँ।
लुट रहें हैं रोज़ जहाँ
सलमा और सुरेन्दर
लूटते ही जा रहे हैं
डेविड और विश्वम्भर।

इनकी ईंट पर तुम आज
पत्थरों को भौंक दो
इनकी भीत पर तुम आज
लाल रंग छौंक दो।
कि पोत दो कालिमा
इनके षड्यंत्र पर
और गोबरों का लेप दो
समस्त काले मन्त्र पर।

गला इनका रेत दो
बिना हथियार के
ज़ुबान इनकी चेप दो
बिना किसी वार के।
ख़त्म इनका खेल हो,
इनको सबको जेल हो
इनकी चाल चले नहीं
इनकी दाल गले नहीं

आदमी को आदमी हक़ तुम्हें दिलाना है
इसीलिए ज़ुबां पे अपने इंक़लाब लाना है।
जाग आओ आज तुम
उठाओ आवाज़ भी
हो नहीं थके-मरे
कर दो आग़ाज़ भी।

क्योंकि
थकी और मरी हुई आवाज़ें,
न जग सकती हैं,
न जगा सकती हैं।
न उठ सकती हैं,
न उठा सकती है।
न चल सकती हैं,
न चला सकती हैं।
न दौड़ सकती हैं,
न दौड़ा सकती हैं।

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