तुमने उठाया माँ!
बहुत भार मेरा।
सहा इतना,
जो था बहुत ही
अनसहा।
पिये वो घूँट
व्यथा के,
जो ज़हर से भी थे
अधिक विषैले।
जेठ की ज्वाला,
ठिठुरन माघ की,
उबड़-खाबड़ रास्ते,
चाही-अनचाही
ज़िन्दगी,
रक्तीले आँसू,
दर्दीला बदन,
और एक अनदेखी
मंज़िल-
'मैं'
जिसपर उठते ही
आये क़दम तुम्हारे।
एक-दो दिन,
या प्रहर नहीं,
बल्कि दिन-ब-दिन
महीना-दर-महीना,
साल-दर-साल,
यह सिलसिला चलता
ही आ रहा
आज तक।
तुमने सुनी उनकी
भी,
जो कहीं कमतर थे
तुमसे।
तुमने सहन किया
उन्हें भी,
जो थे बस
तुम्हारी एक फूँक के बराबर।
तुमने उनकी भी
मार खाईं,
जो तुम्हारी
अँगुली की प्रहार से भी
तिलमिला उठते।
पर तुमने पी लिया
इन सारे विषों को,
शिव बनकर।
वह जो तुम्हारे
गले में नीला रंग है न माँ
मैं जानती हूँ,
यह कुदरती नहीं।
तुम्हारे गाल पर
जो लकीरें हैं,
ये कोई श्रृंगार
नहीं है तुम्हारा।
मैं जानती हूँ
माँ
कि दुश्मन की लाश
से भी
बदतर तरीके से
घसीटी गई हो तुम।
मैं जानती हूँ यह
सब
कि
कोख में मेरी
रक्षा करने का
दण्ड मिला है
तुम्हें।
तुम जो चाहती थी
ख़ुद बनना,
तुम चाहती थी
जैसा जीना,
वह न हो सका कभी,
क्योंकि मूँछों
और नाक ने तुम्हें
बन्दी कर दिया
परम्पराओं की जेल में।
तुम्हारी क़लम
बेलन,
कॉपी चकला बन गई।
खेल
पति के बिस्तर से
लेकर
गृहस्थी की चाकरी
बन गए।
माँ तुमने वास्तव
में जीवन
नहीं नर्क जिया
है।
तुम्हें लोगों ने
मारा,
और तुमने अपने
सपनों को।
कितनी हत्याएँ
हुई हैं न माँ?
कितनी भावनाओं की
लाश उतरा रही है न
तुम्हारे मन के
कुएँ में?
पर माँ! अब ऐसा
नहीं होगा,
मैं ऐसा होने ही
न दूँगी माँ।
लो पकड़ो तुम भी
यह क़लम माँ
और लिख डालो अपनी
तक़दीर।
अभी तक माँ
देती थी अक्षर
ज्ञान बेटियों को,
आज एक बेटी करती
है प्रण
करने को शिक्षित
अपनी माँ को।
ताकि उसकी माँ को
फिर न पीना पड़े
वही कालकूट,
जिसे वह बचपन से
पीती आई है।
तुम पढ़ोगी माँ,
तुम बढ़ोगी माँ,
तुम लडोगी माँ,
तुम जियोगी माँ।
तुम अपनी ज़िन्दगी
जियोगी
अपने पसन्द की
अपने सपनों की
ज़िन्दगी।
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