उसका आगमन है अटल,
तो आएगी ही।
आलिंगित कर मुझे
भर लेगी मेरी
श्वासों के भीतर अपने।
मेरे स्पन्दनों
पर कर एकाधिकार,
रक्त-शिराओं में
बना डालेगी बाँध भी।
नेत्रों को कर
निमीलित,
हरेगी ज्योति,
और पूर्ण निःशक्त
कर,
कर देगी भू-शायी
मुझे।
वह है तो अतिथि,
परन्तु आती ही है,
है यह निश्चित ही,
क्योंकि वह
मृत्यु है।
हे भविष्य मेरे!
मैं नहीं चाहता,
मेरे शव का जीवन
हो अत्यल्प।
बने घातक
वन्य-काष्ठ,
या जल-विद्युत के
लिए,
और
सिन्दूरी-पीली,
आड़ी-टेढ़ी रेखाओं
के मध्य बचे राख मात्र,
कुछ ही क्षण
तमतमा कर।
मैं तनिक भी नहीं
इच्छुक
कि मेरे
जीवनोपरान्त
मनोरंजन हो
अघाए-जनों के लघु-दीर्घाहार का,
और परिजनों पर आए
बोझ बलात रीतिपालन का।
है मेरी प्रबल
लालसा यह
कि
दिया जाऊँ फेंक
किसी निर्जन-कानन में,
जहाँ न हो
मानव-रेख भी,
और जिए मेरा
पार्थिव,
मृत-जीवन भी कुछ
दिवस।
मैं चाहूँगा,
करना आमंत्रित
श्वान-शृगालों,
कीट-कागों, गृद्ध-ब्यालों को।
मिले उन्हें भी
प्रेम मेरा,
जो चलती देह को
छू भी नहीं पाते।
उनका उदराहार बन,
मैं करूँ तृप्त
क्षुधा उनकी।
कथित
वीभत्स-ज्ञानी
एवं नरभक्षी
मनु-सन्ततियों
के शोषण से कहीं
श्रेष्ठ है,
अज्ञानी एवं मूक
प्रकृति-जन्यो के मध्य,
मिट्टी का मिट्टी
हो जाना।
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