शब्द समर

विशेषाधिकार

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3.5.17

गाल ही बजाइए


आइए हुज़ूर ज़रा ताल बजाइए
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए

आप हैं शिकारी बड़े,
अपने पैरों पर हैं खड़े,
बड़ी-बड़ी लड़ाई लड़े,
बाहों पे रत्न ख़ूब जड़े
पर जिस पर रखी थी बन्दूक, वह कन्धा भी दिखाइए
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए

लिखने में बड़े शूर हैं,
दिखने में भी हूर हैं,
कहते तो ज़रूर हैं,
पर करने से ज़रा दूर हैं,
पर दूसरों पर दिए उपदेश को, ख़ुद के अमल में भी ज़रा लाइए
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए

गाँधी हों अड़ोस में,
सुभाष हों पड़ोस में,
राम हों बड़े रोष में,
युवा भी हों जोश में,
पर बगल की कुण्डी को छोड़, कभी द्वार अपना भी खटखटाइए,
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए


आज काट डालिए,
आज छाँट डालिए,
आज हाथ डालिए,
आज बाँट डालिए,
पर रक्त औरों का बहा कर, ख़ुद को यूं तो न छुपाइए   
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए

दूसरों का खून है,
आपमें जनून है,
फटा ख़त का मजमून है,
दिखे आपमें सकून है,
पर दूसरों के लहू को छोड़, अपनी भी देह पर कभी आँच तो लगाइए
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए

घात आज कराइए,
मात आज कराइए,
साथ न आज जाइए
पर प्रतिघात आज कराइए
दूसरों को बरगला कर, ख़ुद को वार न से बचाइए
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए




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