शब्द समर

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25.6.15

मृत्युशैय्या से शिशु के बोल

सुनों!
मैं दिखूँगा तब तक ऐसे ही
जब तक उठ न जाऊँ मृत्युशैय्या से|

तुम नष्ट न करना अपना समय
मेरी प्रतीक्षा में,
उठ पड़ना लेकर अपनी रक्तरंगी
मस्तक की रेखाएँ,
करना प्रहार उस चक्र पर जिसे घुमा रहा है
काल सत्ताधीशों के वश में होकर|
धधकना तुम अग्निशिखाओं की भाँति
मेरे शव पर
और दे देना संकेत मेरे पुनरागमन का,
उन्हें जो रंजित हैं मेरे रक्त से|

कर देना विवश उन्हें यह सोचने पर
कि सत्य ही
वही हैं मेरे हत्यारे
जिन्होंने नहीं निकाली मेरी अन्तड़ियाँ
घोप कर कोई बर्छी
बल्कि तड़पा डाला एक-एक अन्न के लिए|
चिपका दिया मेरी पसलियों को मेरी पीठ से
बिना किसी शस्त्र प्रहार के|

मैं तो अभी शिशु ही था|
रंगीन से पूर्व ही पहना दिया गया
मुझे यह श्वेत वस्त्र
मात्र इसलिए कि मेरी उदराग्नि को शांत करने के लिए
जल नहीं अन्न की थी आवश्यकता
और तुम थे असहाय
ऋणमुक्त होने के मार्ग पर|

उन्हें कराना आभास
कि
मेरी एक-एक छटपटाहट ने
उत्पन्न कर दिया है और भी असंख्य क्षुधेक्षु
जो पीटेंगे मात्र उनके ही द्वार
और तब तक न होंगे विचलित
जब तक न पा जाएँ अपनी रोटी
या सो न जाएँ मेरी ही भाँति इस श्वेत शैय्या पर|

सुनों! मेरा अकालगमन
मत करना सरल उनके लिए
अन्यथा उनका उदर सुरसा हो जायेगा
और हम बनते रहेंगे लघु जीवों की भाँति उनका ग्रास
अनायास ही
बल्कि करना संगठित स्वसमाज को,
बनाना हिमालय सा विशाल
और अडिग रहना अपने पथ पर|  

हे जन्मदात्रि!
मैं भविष्य तो भूत हो गया
तुम इस धूसर वर्तमान के भविष्य को
स्वर्णिम बनाने में कोई कसर न छोड़ना  
चाहे कुछ और भविष्यों को भूत की गोद में क्यों न समाना पड़े|

 

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