मैं सोच रहा हूँ
कर लूँ पलायन
इस जिजीविषा से|
इस जिजीविषा से|
मैं चला जाऊँ कहीं
अनन्त की यात्रा पर
लेकर अवकाश इस
सांसारिकता से|
लेकर अवकाश इस
सांसारिकता से|
मैं सोच रहा हूँ जाकर
छिप जाऊँ
किसी स्याह अँधेरी
गिरि कन्दरा में
जहाँ नभ-मंडल और उसकी
तारिकाएँ हो रही हों दैदीप्यमान
आठों प्रहर
और हरण कर लें
अज्ञानलवदुर्विदग्ध इस अन्तः का|
और हरण कर लें
अज्ञानलवदुर्विदग्ध इस अन्तः का|
मैं सोच रहा हूँ
जाकर करूँ निवास,
किसी ऐसी मरुस्थली में
जहाँ समुद्र की उत्ताल-उच्छृंखल तरंगे
हिम की भांति हों स्थिर
और दे रही हों शन्ति मेरी
अन्तः के विचलन को|
और दे रही हों शन्ति मेरी
अन्तः के विचलन को|
मैं सोच
रहा हूँ
चला जाऊँ किसी
ऐसे हिम सागर में
जहाँ तपती हुई अग्नि शिखाएँ
भस्म कर दें मेरी
इच्छाओं को|
मैं सोच रहा हूँ
हो जाऊँ लुप्त किसी
ऐसे अघोर वन में
जहाँ बजरियों की
दीवारें रोक रही हो
प्राणघातक पवन को|
मैं सोच रहा हूँ
बैठ जाऊँ जेठ की
दुपहरी में कहीं
जहाँ का मंद समीर
अपनी मंथर गति से
कर रहा हो
जहाँ का मंद समीर
अपनी मंथर गति से
कर रहा हो
संताप मुक्त मुझे|
मैं पलायनवादी बनना चाहता हूँ
क्योंकि मैं नहीं चाहता
आगमी पीढ़ियाँ पढ़ें
मैं पलायनवादी बनना चाहता हूँ
क्योंकि मैं नहीं चाहता
आगमी पीढ़ियाँ पढ़ें
मात्र मेरा इतिहास
और मेरे चित्र के नीचे लिखा हो
विलुप्त प्राणी|
और मेरे चित्र के नीचे लिखा हो
विलुप्त प्राणी|
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति .....बधाई
जवाब देंहटाएंधन्यवाद यशस्वी
हटाएंपर हर सोच साकार कहाँ हो पाती है ? सुन्दर रचना..
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