मैं जब कक्षा छठी में था तब मुझे पढ़ाया गया था
कि पृथ्वी जब उत्पन्न हुई तब वह आग के गोले के समान थी। धीरे-धीरे वह सूर्य से दूर
होती गई और उसका तापमान घटता गया। कालान्तर में अभी तक जितने शोध हो सके हैं या
जितनी खगोलशास्त्रियों ने जानकारी जुटाई उसके अनुसार समस्त ब्रह्माण्ड में पृथ्वी
ही एक ऐसी ग्रह है जिसमें जीवन संभव है।
इसी प्रकार अनेक दूसरे जीवों की उत्पत्ति के
पश्चात् मनुष्य की उत्पत्ति हुई। इतिहासकारों के अनुसार जब मनुष्य वानर से नर बना, तब वह निर्वस्त्र था। उसे वस्त्र पहनना
नहीं आता था या यूं कहें कि तब वस्त्र क्या होता है, उसे पता भी नहीं था। समय बीतता गया मानव में बुद्धि का विकास हुआ
उसने बड़े-बड़े आविष्कार किये और आज हम जिस युग में जी रहे हैं वह युग ‘कलयुग’ है। कलयुग अर्थात ‘कल’ माने ‘यन्त्र’, ‘युग’ माने ‘समय’।
चक्र की आकृति गोल होती है और संयोग से समय और
पृथ्वी की आकृति भी गोल ही है। प्रतिदिन घड़ी की सुई जहां से यात्रा प्रारंभ करती
है एक निर्धारित काल के पश्चात् वह उसी स्थान पर पहुंचती है तथा एक क्षण भी व्यर्थ
किये बिना वह अगली यात्रा प्रारंभ कर देती है। सृष्टि के निर्माण से अब तक समय
रुका नहीं है और वह निरंतर गतिमान है। अपने साथ असंख्य परिवर्तन लिए यह समय असंख्य
निर्माण व विनाश का साक्षी है।
मेरे पूर्वजों ने जो अपना समय बताया था या अभी
तक का जो जीवन मैंने जिया है तथा इस संसार
का जो रूप देखा है तो पिछले 10 वर्षों में स्वयं ही अपने व आसपास में कई परिवर्तन
देखा है। जब उसे सोचता हूं तो जो परिवर्तन हो रहे हैं उसमें तीव्र गति से पीढ़ियों
में अन्तर दिख रहा है। रहन-सहन,
खान-पान, पहनावा, विचार, शौक इत्यादि हर क्षेत्रों में।
इन सभी परिवर्तनों के अतिरक्तित जो प्रकृतिक
परिवर्तन दिख रहे हैं वे एक बहुत बड़े विनाश
की सूचना देते हुए से प्रतीत हो रहे है। आज समूचा मानव समाज हो रहे जलवायु
परिवर्तन व बढ़ रहे वैश्विक -ताप से
भयभीत है। पश्चिमी देशों में तथा कुछ-कुछ भारतीय महानगरों में अब पूर्ण वस्त्र
पहनने वालों की तदात घटने लगी है। पुरुष हो या स्त्री वस्त्र पहनने की रुचि लोगों
की कम ही दिखाई पड़ रही है।
कहने का तत्पर्य यह है कि समय जहां से प्ररंभ
होता है उसी स्थान पर पहुंचता है। पृथ्वी सूर्य से अलग होकर आग के समान थी तो अब
तीव्रता से बढ़ रहा वैश्विक-ताप इसे पुनः उसी स्थिति में पहुंचने का द्योतक लग रहा
है वहीं वस्त्र विहीन आदिम मानवों की भांति वर्तमान मानव समाज धीरे-धीरे उसी दिशा
की ओर अग्रसर हो रहा है। गोल धरती,
गोल रह जायेगी किन्तु वह पुनः अपने चरम ताप को प्राप्त कर लेगी और नंगा मानव अपने पूर्वजों की भांति
नंगा हो जायेगा इस सृष्टि से मानव नामक प्राणी का पुनः सर्वनाश हो जायेगा। यह नग्न से नंगेपन की यात्रा है। मनुष्य
निर्वस्त्र पैदा हुआ तो उसका विनाश भी नंगा ही होगा। यही काल की गति है जो गोल है
न आदि है न अंत।