शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

9.12.12

मैं अहंकारी


इतना बड़ा ब्रह्माण्ड,
जिसमें कई आकाश गंगाएं करती काण्ड।
उनमें से एक हमने चुनी,
नाम उसका 'मंदाकिनी'।

घूम रहे जिसमें अगनित तारे,
फैला रहे जगत में जो उजियारे।
तारा अपना है 'दिवाकर',
हर्षित हैं हम इसको पाकर।

यह है राजा नौ हैं इसके चेरे,
प्रतिदिन-प्रतिपल लगाते इसके फेरे।
इनमें से एक 'वसुन्धरा',
जिसने इतना बोझ धरा।

इसको बांटा सागर और सीप में,
सात महाद्वीप में।
'एशिया' है जो खड़ा,
विश्व में सबसे बड़ा।

इसमें ही हैं कई देश,
एक-दूसरे का हरते क्लेश।
उन सब में है देश हमारा,
'भारत' नाम विदित संसारा।

चलाने के लिए काज,
उन्तीस बांटे इसमें राज।
हृदय जिसे कहते गुणी,
'मध्यप्रदेश' अग्रणी।

इसके भी हुए भाग,
नौ बने इसमें संभाग।
'रीवा' है सबका सरताज,
बघेलों का था जिसमें राज।

इनसे आकर कोई मिले,
इसमें बने हैं चार ज़िले।
नहीं फैलाता कोई झोली,
नाम है इसका 'सिंगरौली,।

काम चलाने को बने हथकण्ड,
और बांटे विकासखण्ड।
सब वर्गों की है ये संगी,
नाम है इसका 'चितरंगी'।

उठाया कागज़ लगाया सील,
और बनाया है तहसील।
'देवसर' जिसका नाम सादर,
हर मानव का जिसमें आदर।

चोरों के लिए लगाया बाना,
इसलिए बनाये गए हैं थाना।
सिपाही करते जहां मेहनत से काम,
'बरगवां' है उसका नाम।

पहुंचाने को पत्र हर घर,
बना दिया है डाक का घर।
मेहनतकश मजदूरों वाली,
नाम है इसका 'गोंदवाली'।

झगड़ा निपटाने-मिटाने कलह,
ग्राम पंचायत में करे सुलह।
सादगी का ओढ़े चादर,
सबको प्यारा लगता 'दादर'।

जंगलों में न लगता ठांव,
क्योंकि बने हुए हैं गांव।
राम से शुरू होता जहां का नाम,
'रमपुरवा' है उसका नाम।

इस गांव में हैं बहुत भवन,
पूजा-पाठ रोज होता हवन।
इनमें है एक घर 'हमारा',
हम सबको ये जान से प्यारा।

घर में न होता कोई पाप,
क्योंकि मुखिया मेरे बाप।
सबसे प्रेम से काम इनका,
श्री 'सुग्रीव देव' नाम जिनका।

आदमी हैं ये बहुत ही सच्चे,
इनके हैं दस बच्चे।
इन सबमें सबसे छोटा,
'विद्यार्थी' मैं सबसे खोटा।

घमण्ड और अहंकार वाला,
इतने बड़े संसार वाला।
जिसका न कोई पार पाये,
आजीवन चाहे घूमता रह जाए।

घर में भी छोटा-संसार में भी तुच्छ,
लिये फिर भी अहंकार का गुच्छ।
अत्यन्त छोटे कद वाला,
लोभ से गद्गद वाला।

पाप को करता हुआ,
सबका श्राप भरता हुआ।
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनता,
दूसरों की प्रगति से मैं जलता।

समझता नहीं संसार को,
बकता रहता बेकार को।
यही बना है काम मेरा,
सेचता होगा नाम मेरा।

अगर ऐसे ही होता रहा काण्ड,
तो मिट जाएगा ब्रह्माण्ड।
आखि़र ऐसा क्यों होता है संसार में,
क्यों बड़े होने का भाव है अहंकार में।

जो भी इसका हल बताए,
वही तो संभल जाए।

यह मेरी पहली रचना जिसमें मैंने अपना पूरा परिचय दे रखा है तथा सर्भौमिक मानवीय प्रवृत्ति को भी. यह रचना जब मैं बारहवीं कक्षा में पढता था तब मैंने रात में तीन बजे लिखी थी वह समय मेरे लिए ऐतिहासिक समय था. इसी कविता ने ही जितेन्द्र देव पाण्डेय के साथ 'विद्यार्थी' को जन्म दिया है. इसमें जिले के नाम में परिवर्तन के अतिरिक्त उस नादान कवि की कृति में आज के कवि को मैंने फटकने तक नहीं दिया है. अभी आप सब तक प्रेषित करने में मुझे उतनी ही प्रसन्नता हो रही है जितनी इसे लिखने के पश्चात् हुई थी. आशा है आप सुधीजनों को मेरा प्रथम प्रयास अच्छा लगेगा.

1 टिप्पणी: