शब्द समर

विशेषाधिकार

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1.3.12

वियोगिनी






















यद्यपि प्रिय मेरे शूर बहुत हैं,
हम चलने को मजबूर बहुत हैं,
पर मिलन हमारा होगा कैसे?
सखि! प्रिय मुझसे दूर बहुत हैं।
 
उनके ही छाया-चित्रों में,
मेरे आठों याम कटते हैं,
नयन-पलक गिरने पर भी,
हिय से  वे ओझल रहते हैं,
मेरी नसों में रक्त कणिक-सा
वे बह तो रहे भरपूर बहुत हैं।
पर मिलन हमारा होगा कैसे?
सखि! प्रिय मुझसे दूर बहुत हैं।
 
आती है सुध उस बेला की,
प्रिय ने मुख-वस्त्र उठाये थे,
नयन लजीले खुल  सके।
प्रिय सर्वांग में समाये थे,
दृश्य नहीं हटते अन्तः से,
जो प्रिय ने दिये मंजूर बहुत हैं|
पर मिलन हमारा होगा कैसे?
सखि! प्रिय मुझसे दूर बहुत हैं।
 
पीत सुमन ऋतुराज के,
विरह अग्नि सुलगाते हैं|
प्रेम-वाण से भेद मदन,
रति को और जगाते हैं|
गुन-गुन करते भ्रामर भी,
अब तो लगते क्रूर बहुत हैं|
पर मिलन हमारा होगा कैसे?
सखि! प्रिय मुझसे दूर बहुत हैं।
 
प्रियदर्शी की वामांगी मैं,
उनके चरणों की दासी|
नहीं कामना और हृदय में,
पग-रज की बस अभिलाषी|
हुई प्रेममय दृष्टि पिया की,
यही कृपा भरपूर बहुत है|
पर मिलन हमारा होगा कैसे?
सखि! प्रिय मुझसे दूर बहुत हैं।
 
यशोधरा और उर्मिला-सी,
पति वियोग की मारी हूँ|
गर्व मुझे उन जैसा ही,
निःस्वार्थ पुरुष की नारी हूँ|
पर नहीं धैर्य होता उन सम,
करती हूक मजबूर बहुत है|
पर मिलन हमारा होगा कैसे?
सखि! प्रिय मुझसे दूर बहुत हैं।
 
शैय्या भी बिन प्रियतम के,
हिय को  तनिक सुहाती है|
अंक निशा में रिक्त पड़े,
आँखें बस नीर बहाती हैं|
धैर्य बँधाती तकिया भी,
लगने लगी मगरूर बहुत है|
पर मिलन हमारा होगा कैसे?
सखि! प्रिय मुझसे दूर बहुत हैं।
 
मेरे प्रिय आतुर होकर,
मुझको आलिंगन करते थे|
अधरों पर धर अधर वो मेरे,
प्रेम-सुधा रस भरते थे|
किन्तु ओष्ठ बिन प्रियतम के,
सूखने पर मजबूर बहुत हैं|
पर मिलन हमारा होगा कैसे?
सखि! प्रिय मुझसे दूर बहुत हैं।
 
 
होती है सिहरन रोयों में,
चित्र नयन में पड़ते ही|
तन-मन पुलकित होते हैं,
जल-बूँद बदन पर पड़ते ही|
एकल-कंटकीय जीवन से,
मन थककर चकनाचूर बहुत है|
पर मिलन हमारा होगा कैसे?
सखि! प्रिय मुझसे दूर बहुत हैं।
 
मेरी प्यारी बहन विरह!
मेरे प्रियतम से कहना|
प्रति एक क्षण युग सम लगता,
कठिन हुआ जीवित रहना|
मैं दौड़ पहुँच जाती उन तक,
पर नारी के दस्तूर बहुत हैं|
पर मिलन हमारा होगा कैसे?
सखि! प्रिय मुझसे दूर बहुत हैं।

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