शब्द समर

विशेषाधिकार

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6.3.12

तीक्ष्ण


हे शूल! 
तुम चाहते हो कि 
लोग तुमसे प्रेम करें।
किन्तु ज़रा सोचो 
आपादमस्तक तुम हो नुकीले।
स्पर्श करते ही 
कोमलांगो को कर देते हो घायल।
तुम कोमल पंखुड़ियों को मात्र 
भेद सकते हो
किन्तु बिंध नहीं सकते
जिससे कर सको एक सुन्दर 
माला का निर्माण।
झुक जाती हैं नम्र-बोझ से 
फलयुत तरु-शाखाएं 
तुममें तो वह गुण भी नहीं है।

हे तीक्ष्ण!
तुम तने रहते हो 
सदैव एक ही दिशा में दृष्टि गड़ाए
और 
रंजित कर देते हो किसी का भी हृदय 
रक्त से।
यद्यपि तुम्हारे पास है
भण्डार सुरभित सुमनों का
किन्तु उपभोगी की प्राप्यता में 
तुम बन जाते हो बाधक।
परिणामतः
तुम दृष्टव्य होते हो
“रास्ते के कांटे” के रूप में।
तुम्हरा यह व्यवहार नहीं होता क्षम्य
किसी के भी दृष्टि में।
तुम्हारे ऊपर होने लगते हैं
प्रहार धारदार शस्त्रों के।
उधेड़़ दी जाती है तुम्हारी चमड़ी
और कर दिये जाते हो किनारे सदैव के लिए
भोगी और पुष्प के मार्ग से।
लोगों को तनिक भी नहीं होता क्षोभ
देखकर तुम्हारा मरण।
चाहे भले तुम कर रहे हो बलिदान
अपनी संस्कृति की रक्षा हेतु।

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