व्यक्ति को
नहीं मारती जितनी ऊपरी मार;
उससे कहीं अधिक मार डालते हैं
भीतर लगे भीतरघात के कीड़े,
जो खोद-खोद कर
कर डालते हैं खोखला
उसके अन्तर्मन को,
और ध्वस्त कर देते हैं
उसके विश्वास एवं आत्मविश्वास की
सशक्त परतों को भी।
भीतरघाती व्यक्ति
नहीं करता प्रहार सामने से;
बल्कि
स्वार्थसिद्धि की कामना लिए
वह चुपचाप रचता है घात,
और करता है प्रतीक्षा—
अपने लिए उपयुक्त समय की।
बनता है मीत,
करते हुए मनुहार,
जीतता है हृदय—
आहति का।
अन्तर्द्रोही नहीं मारता
एक ही वार में;
चोटिल को,
अपितु
अन्तःघाती बन
मौन भाव से
रचता है षड्यंत्र,
करता है प्रयोग—
साम, दाम, दण्ड, भेद जैसी
दुष्चक्रवर्ती नीतियों का;
और अजगर की भाँति
लपेट कर, मरोड़ कर,
तोड़ डालता है
अरिदण्ड को।
ऊपरी मार से
मर जाता है व्यक्ति
एक ही बार में;
त्याग देता है
भौतिक देह भी।
परन्तु भीतरघात से
जलता है वह तिल-तिल,
घुटता है भीतर-ही-भीतर;
और मरने से पूर्व
बार-बार मरता है—
यह सोचकर
कि जिससे मैंने प्यार किया,
उसने ही मुझ पर
वार किया।
भीतरघात से
व्यक्ति मरता तो नहीं,
किन्तु मर जाता है—
मन-ही-मन।
सर इस कविता का हर भाव जाना-पहचाना है। भीतरघात की यह पीड़ा मैंने भी अपने जीवन में महसूस की है।
जवाब देंहटाएंRavendra Awasthi