शब्द समर

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15.12.25

भीतरघाती

व्यक्ति को
नहीं मारती जितनी ऊपरी मार;
उससे कहीं अधिक मार डालते हैं
भीतर लगे भीतरघात के कीड़े,
जो खोद-खोद कर
कर डालते हैं खोखला
उसके अन्तर्मन को,
और ध्वस्त कर देते हैं
उसके विश्वास एवं आत्मविश्वास की
सशक्त परतों को भी।

भीतरघाती व्यक्ति
नहीं करता प्रहार सामने से;
बल्कि
स्वार्थसिद्धि की कामना लिए
वह चुपचाप रचता है घात,
और करता है प्रतीक्षा—
अपने लिए उपयुक्त समय की।
बनता है मीत,
करते हुए मनुहार,
जीतता है हृदय—
आहति का।

अन्तर्द्रोही नहीं मारता
एक ही वार में;
चोटिल को,
अपितु
अन्तःघाती बन
मौन भाव से
रचता है षड्यंत्र,
करता है प्रयोग—
साम, दाम, दण्ड, भेद जैसी
दुष्चक्रवर्ती नीतियों का;
और अजगर की भाँति
लपेट कर, मरोड़ कर,
तोड़ डालता है
अरिदण्ड को।

ऊपरी मार से
मर जाता है व्यक्ति
एक ही बार में;
त्याग देता है
भौतिक देह भी।
परन्तु भीतरघात से
जलता है वह तिल-तिल,
घुटता है भीतर-ही-भीतर;
और मरने से पूर्व
बार-बार मरता है—
यह सोचकर
कि जिससे मैंने प्यार किया,
उसने ही मुझ पर
वार किया।

भीतरघात से
व्यक्ति मरता तो नहीं,
किन्तु मर जाता है—
मन-ही-मन।

कमाल करते हो

ख़ून से सने अख़बार से हाल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

घुँघरू हो चुके टीवी से ख़याल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

बिक चुकी कलम का मलाल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

लुटी हुई इज़्ज़त का जमाल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

ख़बरची का दर्द-ए-हवाल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

चाल से हुए बेचाल की चाल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

मीडिया कितना हुआ ज़वाल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो। 

ताल पर नाचा कितने ताल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

क्या सबका लहू होता है लाल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

आबरू का कौन है दलाल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

अच्छे दिनों का मेरे जलाल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

किस हक़ से तुम मेरा अहवाल पूछते हो—
कमाल करते हो, तुम सवाल पूछते हो।

शब्दार्थ-
मलाल — पछतावा
जमाल — खूबसूरती
हवाल — दुर्दशा
जवाल — गिरा हुआ
खबरची 
 पत्रकार
जलाल — महिमा
अहवाल — समाचार

3.12.25

इंसान का गिरगिटापन

वो कहते हैं
"तुम रंग बदलो। 
तुम लाल हो तो लाल को बदलो
तुम हरे हो तो हरे को बदलो
तुम नीले हो तो नीले को बदलो
तुम काले हो तो काले को बदलो।" 

यह बात सुन रहा था गिरगिट कहीं। 
उसे लगा यह बड़ा अजीब। 
बोला बड़ी ज़ोर से — 
"ओ रंग से जाति पहचानने वालों
जब सारा रंग मनुष्य ही बदल देगा
तो क्या मैं तुम इंसानों की तरह
इस दुनिया में 
तिलक-टोपी लगाकर
तीर-तलवार, बन्दूकें लेकर
नफ़रत और दंगे फैलाने आया हूँ

भाई
जो काम मेरा है
वो मुझे करने दो। 
तुम्हारा काम है  
दुनिया रूपी बग़ीचे में
दया-करुणा के पानी से सींचकर,
इंसान रूपी फूल खिलाना
कड़वाहट के काँटे निकालकर
प्यार-मोहब्बत की खुशबू बिखेरना। 

रंग तो कुदरत की देन है
और कुदरत 

हमेशा बहुत ही खूबसूरत होती है।
 

तुम उसमें भेद न डालो।"