शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

1.7.24

मैं न होता, तो?

मैं न होता, तो?
क्या स्थिर हो जाती पृथ्वी अपने अक्ष पर?
न उगता सूर्य,
न दिखतीं चन्द्र-कलाएँ,
स्तब्ध हो जाता यह ब्रह्माण्ड,
या निष्क्रिय हो जाता समय-चक्र ही,
मेरे अभाव में?

मैं न होता, तो?
क्या वायु न होती गतिमान,
स्रावित न होती तरंगिणी,
प्रज्जवलित न होती अग्नि,
तारक-शून्य होता व्योम,
या प्राणिहीन हो जाती धरा यह?

मैं न होता, तो?
क्या न जन्मता जीव कभी,
सभ्यताओं का न होता विकास क्या?,
और क्या न उपजतीं संस्कृतियाँ,
न बन पातीं श्रृंखलाएँ उसके संघ की,
या नष्ट हो जातीं सम्पूर्ण परम्पराएँ ही जीवन की|

मैं न होता, तो?
क्या न होते स्वप्न,
न जन्मतीं कल्पनाएँ,
न उदित होते विचार कभी,
न बनती धारणाएँ,
या सोच-शून्य ही हो जाता मानव-समाज यह?

मैं न होता, तो?
क्या न बनते धर्म,
न उपजता सम्प्रदाय,
वर्णों का न होता विभाजन कभी,
न बाँटा जाता देही जाति में,
या समस्त सृष्टि होती एकाकार?

मैं न होता, तो?
क्या न होता अस्तित्ववाद,
अहंकार का भाव न उपजता,
द्वेषहीन होते क्या जन सभी,
न होतीं विभीषिकाएँ क्या युद्ध की,
या मानव मात्र सामान होता जगत में?

मैं न होता, तो?
क्या सम्बन्ध न होते परस्पर,
न होता स्नेह का भाव,
अनुराग न होता क्या किसी चित्त में,
और प्रणयाभिसार में अनुरक्त भी,
या जीवात्मा हो जाता रागहीन ही?

सुनों,
ऐसा कुछ नहीं होता|
मेरे होने,
या न होने से|
मैं, तुम या कोई भी सजीव-निर्जीव,
इस स्थूल जगत में एक रज हैं मात्र,
जिसकी नहीं है कोई गणना,
इस अगणित के समक्ष|
यह प्रकृति, इसकी सृष्टि,
यह काल, इसकी चाल
यह ब्रह्माण्ड, इसके काण्ड
अनन्त हैं,
निर्बाध रूप से,
होते रहेंगे वैसे ही संचालित,
जैसे ही युग-युगान्तरों से होते आए हैं|

ये पद का मद,
एक क्षणिक राग है व्यक्ति के मन का,
जो उत्पन्न करता है भ्रम श्रेष्ठता का,
परन्तु अन्तर्मन में,
जब होता है दृष्टिमान सत्य इसका,
और मनः-पटल पर प्रारम्भ होता है चिन्तन गहन,
तब उस विषाद से मुक्त हो,
बन जाता बुद्ध वह,
और मिश्रित कर काल-धारा में,
कर लेता है शून्य स्वयं को,
और लीन हो जाता है,
अनन्त ब्रह्माण्ड में|

अतः, हे प्रिय!
मेरे और अपने होने का अहंकार मन से त्याग,
वह करो,
जो तुम्हारा कर्तव्य है,
मैं भी वही करता हूँ,
जिसपर है वश मेरा,
किन्तु उसके परिणाम पर नहीं है कोई अधिकार
न तुम्हारा, न ही मेरा|
उसका अधिपति
काल ही है मात्र|

2 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय बहुत ही सुंदर है कविता है।
    आपसे मिलने का बहुत मन है।
    संपर्क 8120804068

    जवाब देंहटाएं
  2. Superb poetry.
    As I already told you, you are my inspiration because I have seen your actions in a very difficult situation, how you keep your emotions balanced, and how you keep yourself very positive. I have learned a lot from you and try to apply it in my daily life as much as possible.

    जवाब देंहटाएं