शब्द समर

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31.1.20

हम उबले लोग

हम उबल चुके हैं,
हम पूरी तरह उबल चुके हैं।
हमारी साँसें उबल चुकी हैं,
हमारी ज़िन्दगी उबल चुकी है।
केवल उबले ही नहीं,
फूल भी गए हैं हम,
हमारी नसों के पोर-पोर में,
पानी भी भर चुका है।

अब बस छीलना बाकी है,
हम बिने नाख़ून के,
बिना कुरेदे ही,
उकेले जा सकते हैं,
परत-दर-परत।

वो देखो,
वो फ़क़ीर आ रहा है।
उसके झोले में कुछ है शायद?
शायद मसाला है।
हाँ वही मसाला,
जिसे लेने कभी,
पुर्तगाल, डच, अँग्रेज़ आये थे,
और उठा ले गए,
पूरा-का-पूरा,
हम सिंक चुके लोगों को पका कर|

इस दाढ़ी वाले फ़क़ीर के पास भी,
शायद वही मसाला है,
लेकिन यह हमसे मसाला लेने नहीं,
हममें मिलाने आया है।

इसके झोले में,
जाति का नमक,
कारोबार की धनिया
रोज़गार का ज़ीरा
और सबसे ख़ास
जो मसाला है,
वह है,
धर्म नाम की लाल मिर्च।

इसके तीखे स्वाद को
हममें डालकर,
अपना भोजन स्वादिष्ट बनाएगा।

भरपेट खाएगा,
डकार लगाएगा,
और जैसा कि कहता है,
फ़क़ीर आदमी है,
झोला उठाएगा,
चला जायेगा|

वह चला जाएगा.
किसी और को उबालने-तलने
और लाल मिर्च से
अपना भर्ता स्वादिष्ट बनाने।

हम उसिने जा चुके लोग,
उसके कुचलने पर,
सिर्फ चीत्कार मार सकते हैं।

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