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10.8.17

प्रेम, घृणा और मैं

सुनों!
तुम्हारे प्रेम और घृणा के मध्य,
एक नन्हा सा जीव है,
वो मैं हूँ।
जो रहना चाहता है मुक्त,
सदैव सीमाओं और वर्जनाओं से।

निःसंदेह,
तुमने खींच रखी हैं रेखाएँ
अपनी सीमाओं की,
बाँध रखा है,
जीवन को कुछ-ही चरणों के समीप,
परन्तु मेरी सीमाएँ हैं
कि रहना चाहता हूँ असीमित चारों ओर।
तुम वृहत हो, विशाल हो, अपार हो, अनन्त हो
इतने कि सिमटे हुए हो
कुछ लोगों की मान्यताओं में ही।
मैं अति सूक्ष्म हूँ, एक तिनका समान
किन्तु विस्तृत हूँ,
प्रियजनों के और स्वहृदय नगर में।

तुमसे जब भी मिला,
तुम बाँध देते हो, एक नई बेड़ी,
पहना देते हो, एक नई हथकड़ी,
किसी-न-किसी रूप, गुण, उपास्य की।
मैंने बहुत-से बंधन तोड़े हैं अब तक,
अपने, तुम्हारे और कथित उनके भी,
जो स्वयं को कहलवाना चाहते हैं,
कर्णधार मेरा-तुम्हारा।

तुम्हारे प्रेम और घृणा के मध्य
एक नन्हा-सा जीव है,
वो मैं हूँ।
जो दुर्योधन और अर्जुन दोनों के पास है,
किन्तु गुण-दोषों के आधार पर
साथ सदैव अर्जुन का ही देता है।
मुझे धर्म प्रिय है,
धर्म वह, जो असीमित है,
धारयेति है, प्राप्य है, परे है समस्त वर्जनाओं से,
उन सबके लिए,
जो चाहते हैं होना धार्मिक।

अब निर्णय तुम्हारा है।
तुम रख बंधन में,
करना चाहते हो स्वयं से दूर मुझे,
या मुझ असीमित को,
स्वीकार यथावत रूप में,
चाहते हो देना अपना प्रेम सानिध्य आजीवन?

वैसे तुम्हारी घृणा भी,
स्वीकार है मुझे,
तुम्हारे प्रेम की ही भाँति,
बस इसमें भी वही निरन्तरता बनाए रखना
जो नियमितता प्रेम की होती है।

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