शब्द समर

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8.3.17

स्त्री


विश्व स्त्री दिवस पर विशेष| यह कविता समर्पित है, उन सभी स्त्रियों को, जो छले जाने के पश्चात् भी छलिया पर से अपना स्नेह कभी नहीं हटातीं 





चित्र-साभार-गूगल



हे पुरुष!
तुमने छला मुझे,
एक नहीं, सहस्रों बार|

मेरे स्वप्न निर्झर बन
मेरी कोमलता पर,
किया अनल-प्रहार,
किया भंग मेरा यौवन-व्रत|

सुख-सागर में सराबोर मैं,
हुई सहचरी तुम्हारी क्रीड़ाओं में,
भरी सिसकियाँ
तुम्हारी व्यथाओं के साथ|
तुम्हारी वर्जनाओं को ही मान विधान,
सीमित की अपनी सीमाएँ,
और तुम्हें ही घोषित कर दिया अपना संविधान|
तुम्हारी उलाहना को ही सत्य मान,
स्वीकारा अपराध,
और दण्डित किया स्वयं को भी|

मैंने त्यागा अन्न-जल
किये कठिन तप,
तीज-चौथ-अमावस  
पश्चात् इसके भी
हे निर्लज्ज!
तुम हुए परगामी|
किन्तु आज भी मेरी माँग,
और चूड़ी
जोहती हैं बाट तुम्हारी कुशलता की|


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