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| चित्र-साभार-गूगल  | 
 
ऋतु श्रेष्ठ!
 
तुम्हीं हो एक ऐसे शासक,
जिसे नहीं होता भय,
छिन जाने का सिंहासन| 
है तुम्हें भान यह 
कि 
तुम्हारे पाँच और साथी,
नहीं करेंगे अतिक्रमण तुम्हारी गद्दी पर,
क्योंकि
भिज्ञ है ग्रीष्म को अपनी कमी
कि उसके लू-ताप से 
जलती हुई धरा,
दौड़कर फैलाती है झोली, 
शीतमय सुख की|
वर्षा देती तो है 
आराम ग्रीष्म-ताप से,
किन्तु वह जानती है,
अपना वेग,
अपनी गति 
कि जब होती है कभी क्रुद्ध
तो बहा डालती है, गाँव-के-गाँव| 
तब शरद 
होता है, थोड़ा सुखकारक
किन्तु 
वह श्वेत ऋतु 
धरणी-पुत्रों में 
बढ़ा देता है कृषि-चिंता 
अल्प, या अति-वृष्टि से| 
साथ ही बनता है 
कारक अवसाद का भी 
कई युवाओं में|
हेमन्तागमन दिखाता है दिवास्वप्न,
किन्तु वर्षा और शरद द्वारा 
किये गये कार्यों के स्थगन को 
पुनर्स्थापित कार्यों की 
बढ़ा देता है व्यस्तता, 
और धरती में भर जाती है अथाह थकन|
उसी थकन भरे जीवन में 
ग्रीष्म के ठीक उलट 
समूचे वातावरण में
शिशिर आता है, 
धारण किये अपना दौद्र रूप|
स्तर-प्रति-स्तर 
वस्त्रों के भीतर भी कर 
जाता है प्रवेश बलात ही
और ठिठुरा देता है समूचे धरा को|
इन सबसे त्रसित और चिंतित 
प्रकृति का जब लगता है होने
केश-पतन,
दिखने लगती है, चहुँ ओर
निर्जनता,
तब अपने पीत सुगन्धों से 
भरा हुआ 
अमृत-घट लेकर होते हो तुम अवतरित|
अपने संजीवनी से 
भर देते हो, जनमानस में प्राण| 
गूँजने लगती हैं किलकारियाँ, 
नव-कोपलों की|
नर्तन करते हुए युवा पल्लव,
करते हैं तुम्हरा स्वागत,
भ्रामर-कोकिल युगलबंदी से 
रंगरंजित हो जाता है वातावरण|
तब तुम्हारे पाँचों साथी,
भी बन जाते हैं, तुम्हारे ही अनुयायी|
बिना किसी राजनीति के,
तुम रख लेते हो अपनी प्रजा को प्रसन्न,
इसीलिए तुम हो निर्विरोध सम्राट 
सस्म्त ऋतुओं के|
ऐसे ही बने रहो, 
चमकता रहे स्वर्ण मुकुट तुम्हारा,
हर परिस्थिति में|