शब्द समर

विशेषाधिकार

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6.8.13

एक सफ़र में रेखा शेखावत के लिए..........

अभी एक सप्ताह पूर्व मैं एक यात्रा पर था. मैं जिस ट्रेन में बैठा था उसी में मेरे सामने एक लड़की भी बैठी थी. उसे मैंने जितनी बार भी उसके अधरों पर एक मुस्कुराहट तैरती हुई मिली अतः मेरा कवि मन चंचल हो उठा और उसने उसकी मुस्कुराहट को कुछ यूँ व्यक्त किया...

वह बहुत मुस्कुरा रही है
एक असमंजस मुझमें आ रही है
या तो हसींन कोई ख़्वाब बना रही है
या टूटा कोई ख़्वाब भुला रही है
वह बहुत मुस्कुरा रही है

हिलते हुए होठों और झपकती हुई पलकों से 
दो रहस्य जता रही हैं
या तो प्रियतम को पा रही है
या उस पल को पछता रही है
वह बहुत मुस्कुरा रही है

कभी क़ुदरत को अपलक निहारती
कभी मृगनयन मुझ पर डालती
दो बातें मुझको बता रही है
या वादियों संग गा रही है
या अश्क़ों को तड़पा रही है
वह बहुत मुस्कुरा रही है

बादलों सी सूरत वाली
राजपूताना की एक राजकुमारी
या बिना बोले ही कुछ बता रही है
या होठों के भीतर कोई गहरा राज़ छुपा रही है
वह बहुत मुस्कुरा रही है...

इसके बाद उसे पढ़ाया भी. वह प्रसन्न हो गई और अगले दिन की सुबह जब तक वह उतर नहीं गई तब तक मुस्कुराती रही. शायद अभी भी मुस्कुरा ही रही हो...


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