आप लोग मुझे जानते हैं? अरे मैं आपकी
भांजी. बहन?
हाँ
मैं आपकी बेटी हूँ जिसके लिए मेरी माँ ने नौ
महीने मेरा इंतज़ार किया है. मैं धरती पर आई तब वो गा रही थी,
मेरे घर आई एक नन्हीं परी
चांदनी के हसींन रथ पे सवार...
तुमने मुझे लक्ष्मी का नाम दिया. मैं पालने में
झूल रही थी तब आप गया करते थे,
सुरमयीं अंखियों में नन्हां-मुन्ना एक सपना दे
जा रे...
और मेरे गालों को अनायास ही तुम चूम लिया करते
थे.
हर राखी को आप मुझसे सुना करते थे,
भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना...
मैं शुक्ल पक्ष की चंद्रमा की तरह बढ़ने लगी...
और आखिरकार पूनम की रात आ ही गई और मैं बड़ी हो गई. तुम्हारी आँखों का वात्सल्य
वासना में बदल गया.
एक दिन मेरे पास एक फोन आया
मैं-
हैलो.
उधर से-
सवी?
मैं-
हाँ.
उधर से-
आज तुम मुझसे मिलने नहीं आओगी?
मैं-
नहीं आज नहीं. कल पक्का.
उधर से-
नहीं सवी प्लीज़.
मैं-
नो आज नहीं.
उधर से-
अगर तुम नहीं आज नहीं आई तो मैं तुम्हारे घर के सामने आकर जान दे दुंगा.
मैं-
नहीं ऐसा मत कहो.
उधर से-
नहीं सवी तुमने अभी तक सुना होगा अब अपनी आँखों के सामने अपने प्रेमी को
मरते देखोगी. ये एक अफसाना बनेगा कि एक प्रेमिका अपने प्रेमी की हत्या का कारण खुद
है.
मैं-
नहीं तुम ऐसा मत करो मैं आती हूँ.
यह फोन मेरे ऊपर जान छिडकने का दावा करने वाले,
जिसपर
मैं अपने आप से भी अधिक विश्वास करती थी, उस मेरे महबूब सौरव का था.
मैंने अपनी चचेरी बहन को साथ लिया और उससे
मिलने गई.
पर ये क्या? यहाँ सौरव अकेला
नहीं दो और लोग हैं.
आओ बुलबुल आओ.
सौरव के मुंह से इस तरह का शब्द मैंने पहली बार
सुना लेकिन सोचा शायद अपने दोस्तों को दिखाने के लिए ऐसा बोला हो.
फिर अचानक तीन से दस लोग हो गये. मेरा प्रेमी
अकेला नहीं अपने नौ और साथियों के साथ है. और फिर
..................फिर..................
आप यह जानना पसंद करेंगे कि हमारे साथ
क्या-क्या हुआ?
आह!!! हम दोनों बहने असहाय, लाचार.
अचानक खेत में काम करने वाले कुछ किसान दौड़े.
पूरी तरह से बिखर चुकी हमें आशा की एक किरण दिखाई पड़ी लेकिन हाय से किस्मत हमारे
निर्वस्त्र देह को देख कर उनके भी भीतर सोया हुआ पिशाच जाग गया. उन रक्षकों में भी
वही हवस थी. और फिर वही वासना का नंगा नाच...........
आज फिर मैं मुख्तार माई की तरह अपने जवानी का
रोना रो रही हूँ. मेरे रूप में आज फिर एक अरुणा शानाबोग ताउम्र कोमा में जाने के
लिए पुरुषों दरिंदगी झेलने वाली लाचार अबला हो गई.
अगर वह दिन दूर नहीं कि जब मुझे सरेआम बसों में
भी पीट-पीट कर मुझे ज़िना किया जायेगा. मेरी हालत तो बकरे के सामान हो गई है जो कब
किस कसाई के हाथ लग जाए कोई ठिकाना नहीं.
आज हर समाज मेरे कपडे उतार रहा है. तुम चाहते
हो अब मैं कपडे ना पहनू. जब कभी कोई मल्लिका या राखी सावंत पहनती हैं कम या तंग
कपडे तुम चिल्लाते हो सबके सामने धिक्कारते हो उनके संस्कार पर फेकते हो लानत
संस्कृति की गिरावट पर लेकिन तुम्हारे मन का चोर तो यही देखना चाहता है. छुप-छुपकर
निहारते हो मेरे वस्त्रों में छिपे मेरे अंगों को और टपकाते हो लार उसी तरह जिस
तरह एक खूंखार भेड़िया करता है इंतज़ार जंगल में असहाय मेमने का.
हे भीष्म! मैं तुम्हारी द्रौपदी आज फिर
तुम्हारी सभा में निर्वस्त्र की जा रही हूँ और आज मुझे बचाने वाला कोई कृष्ण नहीं
है. जहाँ भी देखती हूँ केवल दुर्योधन और दुश्शासन ही हैं...
(यह कहानी इंदौर में हुए एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म पर आधारित है किन्तु नाम काल्पनिक हैं. अभी दिल्ली में हुआ एक युवती के साथ सामूहिक और हिंसक दुष्कर्म से इसे फिर ताज़ा कर दिया. पुरुष समज इतना वहशी हो गया है कि लगता है यह रचना सदैव नई रहेगी. ईश्वर न करे ऐसा हो)