हे
विचलित!
तू हो स्थिर
समझ विधान विधाता का
वह सब कुछ नहीं है
प्राप्य हेतु तेरे
जिसके लिए होता है तू इच्छित.
हे
चंचल!
ले मान यह भी
सब कुछ नहीं है तेरा
जिस पर है तेरी गहरी आसक्ति.
हे
धूसर!
हो जा भिज्ञ
तू नहीं है पारस जो कर दे स्वर्ण
छू कर हर पाषाण को.
हे
बेकल!
तू व्यथित न हो
किसी के अस्वीकार से
सबका होता है निज जीवन
हस्तक्षेप न कर
तू उनकी निजता में
जैसे नहीं चाहता तू अपने में.
विचलित!
तू हो स्थिर
समझ विधान विधाता का
वह सब कुछ नहीं है
प्राप्य हेतु तेरे
जिसके लिए होता है तू इच्छित.
हे
चंचल!
ले मान यह भी
सब कुछ नहीं है तेरा
जिस पर है तेरी गहरी आसक्ति.
हे
धूसर!
हो जा भिज्ञ
तू नहीं है पारस जो कर दे स्वर्ण
छू कर हर पाषाण को.
हे
बेकल!
तू व्यथित न हो
किसी के अस्वीकार से
सबका होता है निज जीवन
हस्तक्षेप न कर
तू उनकी निजता में
जैसे नहीं चाहता तू अपने में.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें