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16.11.11

बेकार

दीन दुनिया से बेखबर एक इन्सान.
करता है वही जो केवल उसे है पसंद.
उसकी चर्या का भागीदार भी होता है मात्र वही अकेले
जिसके कारण कहा जाता है उसे  मनमानी.
किसी दुसरे के पसंद या नापसंद की नहीं  है
उसे कोई परवाह इसीलिए है वह  बेहद सख्त
लोगों की नज़र में.
सच्चाई को प्रकट करने के लिए
अपनी तीक्ष्ण वाणी के प्रहार
से छलनी कर देता है किसी का कलेजा
चाहे वह हो कितना भी घनिष्ठ.
किसी और के सुख-दुःख में शामिल होने का
नहीं करता दिखावा
जिसके कारण माना जाता है
समाज का एक निर्दयी व्यक्ति.
अपने जीवन या मरण का
कभी नहीं रखता ख्याल
और रहता सदैव मस्त अपनी
रामधुन में
बनाकर चाहरदीवारी आदर्शों और सिद्धांतों की.
इसी चार बाई चार के कमरे में
बसाता है अपनी गृहस्थी
और घिरा रहता है
कूड़े-करकटों, किताबों, धुल और मिट्टियों के मध्य.
उसका श्रृंगार भी होती है
अजीबो-गरीब
जो है
चमकदार दुनिया के ठीक विपरीत.
उसके मुखमंडल पर
सौन्दर्यमान होती है
उसकी मैली-कुचैली घिनौनी सी
दीख पड़ने वाली दाढ़ी.
और ऐसे ही लम्बे घने बल.
महीनों पहले धुला हुआ कुचैला कपडा.
दुनिया जिसे मानती है सुन्दरता
उसे बनाने में उसे समझ आती है बर्बादी वक़्त की.
उसके लिए नहीं है कोई भी घनिष्ठ
चाहे वे हों माता-पिता,  बनिता या बेटा.
किसी के मरण पर नहीं बहाता अनायास आंसू
नहीं थिरकते पांव किसी के आगमन पर.
लालच या महत्वाकांक्षा तो स्पर्श भी नहीं कर पाती
क्योंकि उसका समुद्र सदैव रहता है उसके पास.
नहीं होतीं मीठी बातें रिझाने वाली
न ही खर्चने को मोटी रकम.
उसके पास
होती हैं बातें,
बड़े-बड़े आदर्शों, सिद्धांतों की
जिसे 
पचा सकता है मात्र वही.
इसीलिए नहीं बैठना पसंद करता कोई
उसके साथ लम्बे समय तक.
कर देता है  नीरस अपनी ख़ामोशी
या वाचालपन से ही
साथ रहने वालों को
यही कारण है कि नहीं बन
पता वह किसी की पसंद.
ऐसा नहीं की उसे किसी से प्रेम नहीं है
प्रेम तो करता है
लेकिन विचारों के सागर में
गोते लगाने वाला
भावनाओं की दरिया में कूदना नहीं चाहता.
लेकिन जाने-अनजाने
कभी
हो जाता है उससे भी यह अपराध
क्योंकि वह है प्रक्रति प्रेमी
और मनुष्य भी है इसी का एक अंश
और कूद पड़ता है
दुनियादारी की खाई में.
तब लोग समझने लगते हैं
उसे एक बेबस इन्सान
जिसे तलाश है किसी के साथ की
और पहुँचाने लगते हैं ठेस
उसके स्वाभिमान को.
किसी की मदद  करने पर
समझने लगते हैं उसकी लाचारी.
किसी के साथ रहने पर,
किसी का साथ देने पर
कहा जाता है उसे गुलाम.
लोग नहीं देते उसे समय
क्योंकि
समझते हैं उसे
बेकार, नीरस, असामाजिक, गवांर.
शूल की तरह चुभ जाती हैं 
यह बातें उसके ह्रदय में.

और तब धधक उठती है लौ
उसके आत्मा की.
मन से परास्त आत्मा
पुनः जीत लेती है स्वयं को.
और फिर मोड़ देती है उसी मार्ग पर
जहां से भटककर चला आया था यहाँ
और
शुरू कर देता है अपना बेरुखापन,
नतीजन
धीरे-धीरे लोग करने लगते है उससे किनारा
और
फेक देते है उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह.
प्रारंभ होने लगता उसका वही एकाकी जीवन
जीसमें जिया करता था वह कभी.
लोग खाने लगते हैं उस पर तरस
और देने लगते हैं उसे सहानुभूति.
दुनिया में बचती हैं मात्र उसकी औपचारिकताएँ 
और
अपने पुराने धुन में मस्त
अकेले ही
चलता ही जाता है, चलता ही जाता है, चलता ही जाता है
और हो जाता है निर्वाण
जो रह जाता है गुमनाम
जिसे दिया जाता है नाम.
'भुवनेश्वर की मौत'
यही है अस्थिर, परिवर्तनशील दुनिया में
उसकी प्रकृति,
उसकी प्रवृत्ति,
उसका स्वाभाव,
उसका आचरण,
उसका मट-मैला जीवन
जो है स्थिर
अपरिवर्तनीय.
जिसे नहीं करता कोई और पसंद
न ही वह किसी और को.

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