शब्द समर

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18.10.11

ग़रीबी का आईना


मै जब भी देखता हूं शीशा  
तो
उसमें दिखती है,
मेरी
ग़रीबी, मेरा दर्द, मेरी टीस,
ज़माने भर की दुत्कार।
मेरे चेहरे की झुर्रियां,
दिखाती हैं मेरी मौत को और भी क़रीब।
फटे हुए कपड़ों के बीच झलकता हुआ
मेरी बेटी का नंगा बदन
जिस पर 
कुत्तों की तरह नज़र गड़ाए हुए थे लोग 
और
नोच डाला उसके जिस्म को 
मरी गाय की तरह।
भूख से तड़पकर मरता हुआ मेरा बेटा
और बिने कफ़न के उसका जनाज़ा ।
मेरी मुफ़लीसी से तंग आकर
जले हुए बदन पर फफोलों भरी लाश 
मेरी बीवी की।
मेरे नाक, आंख, कान, 
मेरा चेहरा या मेरे बाल
जिनके लिए
मैं देखता हूं इसे 
वो तो बचपन में ही ख़त्म हो गये
मेरे पिता की मौत के साथ 
जब चाबुकों  की फटकार पड़ी थी 
ठेकेदार की।
मेरे दिल का ज़ख्म अब नासूर बन गया है।
ऐ आईने!
अब 
तू टूट जा
अपनी नोकों से
छलनी-छलनी कर दे मेरा सीना
और कर दे मुझे, 
ख़ुदा के हवाले।

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