शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

26.9.25

हे माधव!

जब श्याम मेघ भी सूखें हों,
और धरती हो ऊसर-बंजर,
जब पवन अग्नि की ज्वाला हो,
और वृक्ष दिखें निर्जर-जर्जर।

जब रात्रि गहन अँधेरी हो,
और जीवन आशा-हीन लगे,
जब मार्ग लगें भयकर सारे,
और वाणी भाषा-हीन लगे।

जब साथ न हो मैत्री कोई,
और एकल-जीवन वासी हो,
जब उल्लास पतित हो नेत्रों से,
और सर्वांग पूर्ण उदासी हो।

तब हाथ तुम्हारा आता है —
हे केशव! मेरे सखा, सुनो,
तब साथ तुम्हारा आता है —
हे माधव! तू ही दिखा, सुनो।

मातृ-पितृ का स्नेह मिला,
भ्राता-भगिनी से पूर्ण किया,
वसुधा-सम कुटुम्ब दिया,
जीवन-रस सम्पूर्ण दिया।

उजाड़, निर्जन उपवन में,
तुमने जो सुमन खिलाया है,
तन-मन से मैं तृप्त हुआ,
जीवन सम्पूर्ण ही पाया है।

कृष्ण दिया, कृष्णा दिया,
मधुवन को मधुमास दिया,
निर्मल-निश्छल हृदय दिया,
दिव्य शान्ति का वास दिया।

अब और न माँगूँ कुछ तुझसे —
ओ मोहन! मेरे मित्र, सुनो,
अनुसरण करूँ शरण तेरी,
और चित में तुम्हारा चित्र, सुनो।

25.9.25

यारियाँ

यारियाँ नहीं होतीं टूटने को
जो टूट जाएँ, यारियाँ नहीं होतीं|

मुश्किलों से उबरना है नहीं आसाँ  
जो उबर जाएँ, दुश्वारियाँ नहीं होतीं| 

बेकाम हैं जवानियाँ आजकल  
जो काम आ जाएँ, बेकारियाँ नहीं होती| 

बे-तआल्लुक़ है ज़िन्दगी उनकी
जो बे-तार्रुफ़ हो जाएँ, वफ़ादारियाँ नहीं होतीं|

ज़िन्दगी का सौदा ज़िन्दगी नहीं होती
जो ज़िन्दगी हो जाएँ, करोबारियाँ नहीं होतीं|


18.9.25

वेदना की सहचरी-स्त्री

चिकित्सक बोले –
“देवि, आवश्यक है आपको पूर्ण विश्रान्ति।
नितान्त शैय्या-विश्राम ही देगा त्राण
इस कटि-पीड़ा से!”

विनम्र निवेदन है, वैद्यवर –
क्या यह सम्भव है यथार्थ में?
कि एक स्त्री,
जो जी रही है मातृत्व का सतत जीवन,
जो है पत्नि किसी पुरुष की,
गृहिणी एक विस्तृत कुल की,
जहाँ वास करते हैं –
सास-श्वसुर,
ज्येष्ठ-जिठानी,
और घर के अन्य अंग।

जहाँ दिन नहीं होता विश्रान्त,
रात्रि नहीं होती रिक्त।
जहाँ अष्टयाम चलती है
कर्तव्यों की शृंखला।
जहाँ मेरी कर्मठता
ही आधार है-
परिवार के सन्तुलित धुरी की,
और मेरी थकान की भी,
कभी नहीं होती किसी को चिन्ता।

वैद्यराज!
कोई ऐसा उपचार बताइए,
जो कर सके इस वेदना का शमन,
पर न बाधित हो
मेरी गृह-कर्तव्यों की निरन्तरता।

दीजिए कोई औषधि –
जो दे सके क्षणिक शान्ति भी,
और दीर्घकालिक सामर्थ्य भी,
ताकि मेरा श्वसुराल रहे प्रसन्न,
और मैं न कहलाई जाऊँ –
"आलसी", "अकर्मण्य", या
"आजीवन व्याधिपीड़ित"।

जब स्त्री ने कही
अपनी पीड़ा की यह अन्तर्वेदना,
तो वैद्य ने कर लिया धारण मौन।
पुनः कुछ क्षण के,
दीर्घ श्वसित हो बोले –

“हे देवि,
यदि आप हैं इस समाज की स्त्री,
तो फिर यह पीड़ा
आपकी सहचरी ही कहलाएगी।
चाहे आप हों स्त्री किसी
कुलीन की,
या मलिन गृह-वासी हों।
आप हों
विस्तारित-परिवार में,
या जीती हों नितान्त
निजी, एकल जीवन। 

स्त्रियों के लिए यह संसार
वेदना-रहित नहीं है।
पीड़ा और स्त्री
सहोदरी न हों भले ही,
परन्तु सखियाँ अवश्य हैं –
जो जीवनभर साथ निभाती हैं,
और साथ छोड़ती हैं
मात्र उसी क्षण,
जब स्त्री मुक्त होती है
इस भव-सागर से।”