“देवि, आवश्यक है आपको पूर्ण विश्रान्ति,
नितान्त शैय्या-विश्राम ही देगा त्राण
इस कटि-पीड़ा से!”
विनम्र निवेदन है, वैद्यवर-
क्या यह सम्भव है यथार्थ में?
कि एक स्त्री,
जो जी रही है मातृत्व का सतत जीवन,
जो है पत्नि किसी पुरुष की,
गृहिणी एक विस्तृत कुल की,
जहाँ वास करते हैं
सास-श्वसुर,
ज्येष्ठ-जिठानी,
और घर के अन्य अंग।
जहाँ दिन नहीं होता विश्रान्त,
रात्रि नहीं होती रिक्त,
जहाँ अष्टयाम चलती है
कर्तव्यों की शृंखला।
जहाँ मेरी कर्मठता
ही आधार है परिवार की सन्तुलित धुरी,
और मेरी थकान की भी,
कभी नहीं होती किसी की चिन्ता।
वैद्यराज!
कोई ऐसा उपचार बताइए,
जो कर सके इस वेदना का शमन,
पर न बाधित हो
मेरी गृह-कर्तव्यों की निरन्तरता।
दीजिए कोई औषधि-
जो दे सके क्षणिक शान्ति भी,
और दीर्घकालिक सामर्थ्य भी,
ताकि मेरा श्वसुराल रहे प्रसन्न,
और मैं न कहलाई जाऊँ,
"आलसी", "अकर्मण्य", या
"आजीवन व्याधिपीड़ित"।
जब स्त्री ने कही
अपनी पीड़ा की यह अन्तर्वेदना,
तो वैद्य ने मौन होकर कहा,
“हे देवि,
यदि आप इस समाज की स्त्री हैं,
तो फिर यह पीड़ा
आपकी सहचरी ही कहलाएगी।
चाहे आप हों स्त्री किसी
कुलीन की,
या मलिन गृह-वासी हों,
आप हों,
विस्तारित-परिवार में
या जीती हों नितान्त,
निजी एकल जीवन।
स्त्रियों के लिए यह संसार
वेदना-रहित नहीं है,
पीड़ा और स्त्री
सहोदरी न हों,
पर सखियाँ अवश्य हैं,
जो जीवनभर साथ निभाती हैं,
और साथ छोड़ती हैं,
सिर्फ़ उसी क्षण,
जब स्त्री मुक्त होती है
इस भव-सागर से।