लोग कहते हैं, "तुम घूमते रहते हो।"
मैं भी कहता हूँ, "हाँ, मैं घूमता रहता हूँ।"
मैं घूमता रहता हूँ,
क्योंकि मुझे घूमना
है पसन्द;
पर मात्र इसलिए नहीं घूमता,
कि मैं घूमना चाहता हूँ।
मैं इसलिए भी घूमता हूँ,
ताकि घूम-घूमकर
मैं घूम सकूँ भारतवर्ष को,
और जान सकूँ इसकी विशेषता को।
मेरा घूमना
नहीं होता घूमना मात्र —
चमकती कारों में,
सुन्दर-चमकीली सड़कों पर।
मेरा घूमना होता है —
सुदूर गाँवों, दुर्गम वनांचलों में,
जहाँ
मैं चलता हूँ कोसों पैदल,
चढ़ता हूँ उत्तुंग पर्वतमालाओं पर,
लाँघता हूँ हहाती-उफनाती नदियों को,
धँसता हूँ पिण्डलियों तक कीचड़ों में,
काँटों से उलझते-जूझते हुए
पहुँचता हूँ उन तक भी,
जो सदियों से
कटे हैं —
कथित इस सभ्य समाज से।
मेरा घूमना नहीं होता घूमना मात्र;
मेरे घूमने में
होती है भेंट —
जली हुई उघड़ी देह,
काँटों से बिंधे नंगे पाँव,
चिपचिपे, रूखे, उलझे केश,
कपाल में धँसी हुई आँखों में कीचड़,
पीठ से चिपकी हुई अन्तड़ियाँ,
और हृदय में अपार सम्मान लिए
धरणी-पुत्रों
और ग्राम्य-वधुओं से —
जिनमें होती है
प्रसन्नता और हर्ष,
तो वहीं छिपी होती है — किसी की पीड़ा-व्यथा,
जो वर्षों से,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी,
उनके जन्म के पूर्व से ही
चिपक जाती है साथ उनके।
मैं बैठ उनकी पंगति में,
उनके चूल्हे में
चुरे भात-दाल को खाता हूँ
बड़े ही चाव से।
खोल कर रख देता हूँ अपने कान,
मन को कर देता हूँ स्थापित उनके समक्ष,
ताकि पीड़ित की पीड़ा को
मैं कर सकूँ एकाकार स्वयं से।
समस्या रूपी अजगर से जकड़े लोग
नहीं जानते जतन अपनी त्राण का।
मेरे घूमने में जटिल-से-जटिल समस्या
होती है हल;
होते हैं समाधान उनके निवारण के —
जिनका अनुसंधान करते हैं
हम मिलजुलकर, एकजुटता से।
मेरे घूमने में
हमारे सुख, सीख, शिक्षा,
रीतियों, परम्पराओं और संस्कृतियों का
होता है निहित एक सार —
जो थोड़ा बँधता हूँ
मैं अपनी पोटली में,
और कुछ संजो लेते हैं वे
अपनी कुटिया में।
मेरा घूमना, घूमना नहीं है;
मेरा घूमना —
भारत की आत्मा को आत्मसात करना है,
वह आत्मा,
जो गांधी जी के अनुसार
"बसती है गाँवों में।"